Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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इकतीसवां संज्ञी पद
२२९.
गोयमा! णो सण्णी, णो असण्णी, णो सण्णी णो असण्णी। णेरइय-तिरिय-मणुया य वणयरसुरा य सण्णीऽसण्णी य। विगलिंदिया असण्णी, जोइसवेमाणिया सण्णी॥६६४॥
॥पण्णवणाए भगवईए एगतीसइमं सण्णीपयं समत्तं॥ भावार्थ - प्रश्न - सिद्धों के विषय में पृच्छा? उत्तर - हे गौतम! सिद्ध न तो संज्ञी हैं, न असंज्ञी हैं, किन्तु नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी हैं।
संग्रहणी गाथा का अर्थ - नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य, वाणव्यंतर और असुरकुमार आदि भवनपति संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी होते हैं। विकलेन्द्रिय असंज्ञी होते हैं किन्तु ज्योतिषी और वैमानिक देव संज्ञी ही होते हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में चौबीस दण्डक के जीवों में कौन संज्ञी, कौन असंज्ञी और कौन नोसंज्ञी नोअसंज्ञी होते हैं, इसका निरूपण किया गया है।
। ॥प्रज्ञापना भगवती का इकतीसवां संज्ञी पद समाप्त॥
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