Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चौतीसवां परिचारणा पद पुद्गल ज्ञान द्वार
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भावार्थ - प्रश्न- हे भगवन् ! नैरयिकों का आहार आभोग- निर्वर्तित होता है या अनाभोग निर्वर्तित ? उत्तर - हे गौतम! नैरयिकों का आहार आभोग निर्वर्तित भी होता है और अनाभोग निर्वर्तित भी होता है। इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर यावत् वैमानिकों तक समझना चाहिये। विशेषता यह है कि एकेन्द्रिय जीवों का आहार आभोग निर्वर्तित नहीं होता, अनाभोग निर्वर्तित होता है।
विवेचन - आहार के दो भेद हैं - १. आभोग निर्वर्तित और २. अनाभोग निर्वर्तित। इच्छा पूर्वक ग्रहण किया जाने वाला आहार आभोग निर्वर्तित कहलाता है और इच्छा के बिना ही ग्रहण किया जाने वाला रोमाहार आदि अनाभोग निर्वर्तित आहार कहलाता है। एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष १९ दण्डकों के जीव दोनों प्रकार का आहार करते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में केवल अनाभोग निर्वर्तित आहार ही होता है, उनके आभोग निर्वर्तित आहार नहीं होता ।
टीकाकार कहते हैं कि जीव जब मनो व्यापार पूर्वक आहार ग्रहण करता है तब आभोग निर्वर्तित और इसके अलावा शेष समय में अनाभोग निर्वर्तित आहार होता है।
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३. पुद्गल ज्ञान द्वार
रइयाणं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्हंति ते किं जाणंति पासंति आहारेंति उदाहु ण जाणंति ण पासंति आहारेंति ?
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गोयमा! ण जाणंति ण पासंति आहारेंति, एवं जाव तेइंदिया |
भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं क्या वे उन्हें जानते देखते हैं और उनका आहार करते हैं अथवा नहीं जानते, नहीं देखते हैं किन्तु आहार करते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं वे न तो जानते हैं • और न देखते हैं किन्तु उनका आहार करते हैं। इसी प्रकार यावत् तेइन्द्रिय तक कहना चाहिये ।
विवेचन - नैरयिक आहार के पुद्गलों को नहीं जानते हैं और देखते भी नहीं है किन्तु वे आहार के पुद्गलों का आहार करते हैं। कारण यह है कि नैरयिक लोमाहार करते हैं और लोमाहार के पुद्गल बहुत सूक्ष्म होते हैं जो उनके अवधिज्ञान के विषय नहीं होते इसलिए वे उन्हें जानते नहीं हैं और चक्षुइन्द्रिय के अविषय होने से वे उनके पुद्गलों को देखते भी नहीं है। बेइन्द्रिय भी नहीं जानते क्योंकि वे मिथ्याज्ञानी होने से उनको आहार के पुद्गलों का सम्यग्ज्ञान नहीं होता । बेइन्द्रियों में मति अज्ञान है और वह भी अस्पष्ट है अतः वे अपने द्वारा ग्रहण किये हुए प्रक्षेपाहार को भी सम्यक् रूप से नहीं जानते और चक्षुइन्द्रिय नहीं होने से देखते भी नहीं है । इसी प्रकार तेइन्द्रिय भी ज्ञान दर्शन रहित होने से जानते देखते नहीं है ।
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