Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तेतीसवां अवधि पद - संस्थान द्वार
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कम से कम अंगुल का असंख्यातवां भाग एवं अधिक से अधिक देशोन लोक तक ही हो सकता है। पूर्व भव से बिना अवधि लाये भी वैमानिकों में उत्पन्न हो सकते हैं। भवनपति व्यंतर में भी पूर्वभव से अवधि लेकर उत्पन्न हो सकते हैं, किन्तु इनका अवधि वैमानिकों जितना विशाल नहीं होने से देवभव के प्रथम समय में ही देवभव सम्बन्धी अवस्थित अवधि हो जाता है। अतः उनके परभवज (परभव से लाये) अवधि की क्षेत्र सीमा वहाँ नहीं रहती है। ___ आगम में अपनी अपनी निकाय (जाति) के देवों के जघन्य उत्कृष्ट अवधि का क्षेत्र बताया है, वह त्रैकालिक देवों में से सबसे न्यूनतम को जघन्य एवं अधिकतम को उत्कृष्ट अवधि कहा है।
सर्वार्थसिद्ध विमान के देवों में परस्पर अवधि की तुलना में क्षेत्र एवं स्थिति से समान होता है किन्तु पर्यायों में परस्पर अनन्त गुणा फर्क होता है। जैसे दो डाक्टर समान डिग्री वाले (एम. डी. या एम. एस. या एम. बी. बी. एस.) होने पर भी अनुभव (पर्याय) में फर्क होता है। वैसे ही देवों में भी क्षेत्र सीमा सरीखी होने पर भी उस क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों को देखने में न्यूनाधिकता, गहराई, क्षमता में अन्तर हो जाता है। इसी प्रकार अन्य समान स्थिति वाले देवों के अवधि का उत्कृष्ट क्षेत्र समान ध्यान में आता है। किन्तु पर्यायों की अपेक्षा न्यूनाधिकता तो उनमें भी रहती ही है। . शंका - भवनपति, व्यंतर देवों के जन्म से ही देवभव जितना अवधि हो जाता है, किन्तु वैमानिकों के जन्म से ही क्यों नहीं?
समाधान - जैसे गाय भैंसादि के बच्चे (बछड़े, पाड़े) जन्म के दिन ही चलते फिरते हो जाते हैं पक्षियों के बच्चे कुछ ही समय में उड़ने लग जाते हैं, परन्तु उनसे विशिष्ट होते हुए भी मनुष्य को चलने फिरने में महीनों समय लग जाता है। तथापि बाद में अधिक विकास तो मनुष्य ही कर सकता है। इसी प्रकार वैमानिक विशिष्ट होते हुए भी उनका अवधि पर्याप्त होने के बाद ही देवभव जितना बनता है। जैसे आम्र. विशिष्ट वृक्ष होते हुए भी वर्षों के बाद फल देता है जबकि तरबूज आदि की बेले-कुछ महीनों में ही बड़े-बड़े फल दे देती है।
३. संस्थान द्वार णेरइया णं भंते! ओही किं संठिए पण्णत्ते? गोयमा! तप्पागारसंठिए पण्णत्ते। असुरकुमाराणं पुच्छा। गोयमा! पल्लग संठिए एवं जाव थणियकुमाराणं।
कठिन शब्दार्थ - तप्पागारसंठिए - तप्र आकार संस्थित, पल्लगसंठिए - पल्लक संस्थित-पल्लक के आकार का।
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