Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तेतीसवां अवधि पद - विषय द्वार
२३९
चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरमंते, आणय-पाणय-आरणच्युयदेवा अहे जाव पंचमाए धूमप्पभाए • हेट्ठिले चरमंते, हेट्ठिम मज्झिमगेवेजगदेवा अहे जाव छट्ठाए तमाए पुढवीए हेट्ठिले चरमंते।
उवरिमगेविजग देवा णं भंते! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति?
गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिजइभागं उक्कोसेणं अहेसत्तमाए० हेट्ठिले चरमंते, तिरियं जाव असंखिजे दीवसमुद्दे, उड्डे जाव सयाइं विमाणाइं ओहिणा जाणंति पासंति।
कठिन शब्दार्थ - हिडिल्ले (हेट्ठिल्ले)- निचले, चरमंते - चरमान्त, सयाई - अपने। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सौधर्म देव कितने क्षेत्र को अवधिज्ञान से जानते देखते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सौधर्म देव जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट नीचे यावत् इस रत्नप्रभा पृथ्वी के निचले चरमान्त तक तिरछे यावत् असंख्यात द्वीप समुद्रों तक और ऊपर अपने-अपने विमानों तक अवधिज्ञान के द्वारा जानते देखते हैं। इसी प्रकार ईशानक देवों के विषय में भी समझना . चाहिये। सनत्कुमार देवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि ये नीचे यावत् दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी के निचले चरमान्त तक अवधिज्ञान से जानते देखते हैं। माहेन्द्र देवों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिये। ब्रह्मलोक और लान्तक देव नीचे तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी के नीचले चरमान्त तक जानते देखते हैं। महाशुक्र और सहस्रार देव चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के निचले चरमान्त तक तथा आनत, प्राणत, आरण और अच्युत देव नीचे यावत् पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी के निचले चरमान्त तक जानते देखते हैं। निचले और मध्यम ग्रैवेयक देव यावत् नीचे छठी तमःप्रभा पृथ्वी के निचले चरमान्त तकं जानते देखते हैं। .. प्रश्न - हे भगवन् ! उपरिम ग्रैवेयक देव अवधिज्ञान से कितने क्षेत्र को जानते देखते हैं?
उत्तर - हे गौतम! उपरिम ग्रैवेयक देव जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट नीचे अधःसप्तम पृथ्वी के निचले चरमान्त तक, तिरछे यावत् असंख्यात द्वीप समुद्रों को तथा ऊपर यावत् अपने अपने विमानों तक के क्षेत्र को अवधिज्ञान से जानते देखते हैं। .
अणुत्तरोववाइय देवा णं भंते! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति? गोयमा! संभिण्णं लोगणालिं ओहिणा जाणंति पासंति॥६६९॥ कठिन शब्दार्थ - संभिण्णं - सम्भिन्न-सम्पूर्ण, लोगणालिं - लोकनाड़ी को। भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन् ! अनुत्तरौपपातिक देव अवधिज्ञान से कितने क्षेत्र को जानते देखते हैं?
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