Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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एगतीसइमं सण्णिपयं इकतीसा संज्ञी पद
प्रज्ञापना सूत्र के तीसवें पद में ज्ञान के परिणाम विशेष पश्यत्ता का प्रतिपादन किया गया है। इस इकत्तीसवें पद में समान रूप से गति के परिणाम विशेष रूप संज्ञा परिणाम का प्रतिपादन किया जाता है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
जीवाणं भंते! किं सण्णी, असण्णी, णोसण्णी णोअसण्णी? गोयमा! जीवा सण्णी वि असण्णी वि णोसण्णी णोअसण्णी वि। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जीव क्या संज्ञी हैं, असंज्ञी हैं या नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी हैं ? उत्तर - हे गौतम! जीव संज्ञी भी हैं, असंज्ञी भी हैं और नो संज्ञी-नोअसंज्ञी हैं।
विवेचन - पदार्थ के भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वभाव का विचार करना संज्ञा कहलाता है। ऐसी संज्ञा जिनको होती है वे संज्ञी कहलाते हैं अर्थात् विशिष्ट स्मरण आदि रूप मनोज्ञान वाले जीव संज्ञी कहलाते हैं और ऐसे मनोज्ञान से रहित जीव असंज्ञी कहलाते हैं। अथवा 'संज्ञायतेऽनया' - जिससे भूत, भविष्य और वर्तमान का सम्यक् ज्ञान हो ऐसी विशिष्ट मनोवृत्ति को संज्ञा कहते हैं और जिनमें इस प्रकार की संज्ञा हो, वे संज्ञी कहलाते. हैं अर्थात् मन सहित जीव संज्ञी और जिनके मन नहीं हो वे असंज्ञी कहलाते हैं। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय असंज्ञी होते हैं। जो संज्ञी भी नहीं हो और असंज्ञी भी नहीं हो ऐसे केवलज्ञानी और सिद्ध नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी होते हैं। अतः समुच्चयसामान्य रूप से जीव संज्ञी भी होते हैं, असंज्ञी भी होते हैं और नोसंज्ञी, नोअसंज्ञी भी होते हैं। क्योंकि नैरयिक आदि संज्ञी होते हैं, पृथ्वीकाय आदि असंज्ञी होते हैं और सिद्ध और केवली नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी होते हैं। _णेरइयाणं पुच्छा?
गोयमा! जेरइया सण्णी वि असण्णी वि णो णोसण्णी णोअसण्णी। एवं असुरकुमारा जाव थणियकुमारा।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक संज्ञी हैं, असंज्ञी हैं या नोसंज्ञी, नोअसंज्ञी हैं ?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिक संज्ञी भी हैं असंज्ञी भी हैं किन्तु नोसंज्ञी नोअसंज्ञी नहीं है। इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर यावत् स्तनितकुमारों तक समझना चाहिये।
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