Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२२६
.
प्रज्ञापना सूत्र
हंता गोयमा! केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं जाव पासइ ण जाणइ।
से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं जाव पासइ ण जाणइ'?
गोयमा! अणागारे से दसणे भवइ, सागारे से णाणे भवइ, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं जाव पासइ ण जाणइ', एवं जाव ईसिप्पन्भारं पुढविं परमाणुपोग्गलं अणंतपएसियं खंधं पासइ, ण जाणइ॥६६३॥ .
॥पण्णवणाए भगवईए तीसइमं पासणयापयं समत्तं॥ कठिन शब्दार्थ - अणागारहिं - अनाकारों से-आकार प्रकारों से रहित-रूप से, अहेऊहिं - अहेतुयुक्ति आदि से रहित रूप से, अणुवमाहिं - अनुपमाओं-सदृशता रहित रूप से, अदिटुंतेहिं - अदृष्टांतोंदृष्टांत, उदाहरण आदि के अभाव से, अवण्णेहिं - अवर्णों-शुक्ल आदि वर्गों से रहित, असंठाणेहिं - असंस्थानों-रचना विशेष-रहित रूप से, अपमाणेहिं - अप्रमाणों से, अपडोयारेहिं - अप्रत्यवतारों से।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या केवलज्ञानी इस रत्नप्रभा पृथ्वी को अनाकारों से, अहेतुओं से, अनुपमाओं से, अदृष्टान्तों से, अवर्णों से, असंस्थानों से, अप्रमाणों से और अप्रत्यवतारों से देखते हैं, जानते नहीं हैं?
उत्तर - हाँ गौतम! केवली इस रत्नप्रभा पृथ्वी को अनाकारों से यावत् देखते हैं, जानते नहीं हैं।
प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि केवली इस रत्नप्रभा पृथ्वी को अनाकारों से यावत् देखते हैं-जानते नहीं?
उत्तर - हे गौतम! जो अनाकार होता है वह दर्शन होता है और जो साकार होता है वह ज्ञान होता है। इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि केवली इस रत्नप्रभा पृथ्वी को अनाकारों से यावत् देखते हैं जानते नहीं। ___इसी प्रकार यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी, परमाणु पुद्गल तथा अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक को केवली देखते हैं किन्तु जानते नहीं।
विवेचन - केवली अनाकार आदि रूप में जब रत्नप्रभा आदि को सामान्य रूप से ग्रहण करते हैं तब दर्शन ही होता है ज्ञान नहीं। जब वे साकार आदि रूप से वस्तु को ग्रहण करते हैं तब ही ज्ञान होता है। अत: केवली जब केवलदर्शन से रत्नप्रभा आदि किसी भी वस्तु को देखते हैं तब जानते नहीं और जब जानते हैं तब देखते नहीं।
॥प्रज्ञापना भगवती का तीसवां पश्यत्ता पद समाप्त॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org