Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
११. मनोभक्षी आहार द्वार. णेरइया णं भंते! किं ओयाहारा मणभक्खी?
गोयमा! ओयाहारा, णो मणभक्खी, एवं सव्वे ओरालियसरीरा वि। देवा सव्वे वि जाव वेमाणिया ओयाहारा वि मणभक्खी वि। तत्थ णं जे ते मणभक्खी देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पजइ ‘इच्छामो णं मणभक्खणं करित्तए' तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव मणामा ते तेसिं मणभक्खत्ताए परिणमंति, से जहाणामए सीया पोग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अइवइत्ताणं चिटुंति, उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अइवइत्ताणं चिटुंति, एवामेव तेहिं देवेहिं मणभक्खीकए समाणे से इच्छामणे खिप्पामेव अवेइ॥६४९॥
॥पण्णवणाए भगवईए अट्ठावीसइमे आहारपए पढमो उद्देसओ समत्तो॥
कठिन शब्दार्थ - ओयाहारा - ओज आहारी, मणभक्खी - मनोभक्षी, इच्छामणे - इच्छा मनमन में आहार करने की इच्छा, मणसीकए - मन से इच्छा किये जाने पर, मणभक्खत्ताए - मनोभक्ष्य रूप में, अइवइत्ताणं - प्राप्त हो कर।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीव ओज आहारी-ओज आहार करने वाले होते हैं या मनोभक्षी होते हैं?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिक जीव ओज आहारी होते हैं, मनोभक्षी नहीं। इसी प्रकार सभी औदारिक शरीर वाले जीव होते हैं। वैमानिक पर्यंत सभी प्रकार के देव ओज आहारी भी होते हैं और मनोभक्षी भी होते हैं। उनमें से जो मनोभक्षी देव होते हैं उनको 'हम मन में चिंतित वस्तु का भक्षण करें' इस प्रकार इच्छा मन-मन में आहार करने की इच्छा उत्पन्न होती है वे देव मन में इस प्रकार की इच्छा किये जाने पर शीघ्र ही जो पुद्गल इष्ट कान्त यावत् मनोज्ञ मनाम होते हैं वे उनके मनोभक्ष्य रूप में परिणत हो जाते हैं जैसे शीत पुद्गल शीत योनि वाले जीव के आश्रित होकर शीत रूप में परिणत होकर रहते हैं, उष्ण पुद्गल उष्ण योनि वाले जीव के आश्रित होकर उष्ण रूप में परिणत होकर रहते हैं उसी प्रकार उन देवों द्वारा मनोभक्षण किये जाने पर उनका मन शीघ्र ही संतुष्ट-शांत हो जाता है। . विवेचन - उत्पत्ति देश में जो आहार योग्य पुद्गलों का समूह है वह 'ओज' कहलाता है। ओज का आहार करने वाले 'ओज आहारी' कहलाते हैं। यह आहार उत्पत्ति के प्रथम समय से लेकर शरीर पर्याप्ति के अपर्याप्तावस्था तक होता है। मन में उत्पन्न इच्छा से मन से आहार करने
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