Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अट्ठाईसवाँ आहार पद द्वितीय उद्देशक पर्याप्ति द्वार
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'१३. पर्याप्ति द्वार
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आहारपज्जत्तीए पज्जत्तए सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तए इंदियपज्जत्तीए पज्जत्तए आणापाणुपज्जत्तीए पज्जत्तए भासामणपज्जत्तीए पज्जत्तए एयासु पंचसु वि पज्जत्तीसु जीवेसु मणूसेसु यतियभंगो, अवसेसा आहारगा, जो अणाहारगा, भासामणपज्जत्ती पंचिंदियाणं, अवसेसाणं णत्थि ।
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भावार्थ आहार पर्याप्ति से पर्याप्त, शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त इन्द्रिय पर्याप्ति से पर्याप्त, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति से पर्याप्त और भाषामन पर्याप्ति से पर्याप्त, इन पांचों पर्याप्तियों से पर्याप्त जीवों और मनुष्यों में तीन-तीन भंग होते हैं शेष जीव आहारक ही होते हैं अनाहारक नहीं। भाषामन पर्याप्ति पंचेन्द्रिय जीवों में ही पाई जाती है अन्य जीवों में नहीं।
विवेचन - पर्याप्तियाँ छह कही गई हैं किन्तु प्रस्तुत सूत्र में पांच पर्याप्तियां ही कही है क्योंकि यहाँ भाषा और मन पर्याप्ति का एक ही पर्याप्ति में समावेश कर दिया गया है। पांचों पर्याप्तियों से पर्याप्त जीवों में एक वचन की अपेक्षा जीवपद और मनुष्य पद में 'कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है।' शेष स्थानों में आहारक होता है । बहुवचन की अपेक्षा जीवपद और मनुष्य पद के विषय में तीन भंग कहने चाहिए और शेष सभी आहारक कहने चाहिये परन्तु भाषामन पर्याप्ति पंचेन्द्रिय जीवों में ही होती है अतः उनके सूत्र में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों का कथन नहीं करना चाहिये ।
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आहारपजत्तीअपज्जत्तए णो आहारए, अणाहारए एगत्तेण वि पुहुत्त्रेण वि, सरीरपज्जत्ती अपज्जत्तए सिय आहारए सिय अणाहारए, उवरिल्लियासु चउसु अपज्जत्तीसु णेरइयदेवमणूसेसु छब्धंगा, अवसेसाणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, भासामणअपज्जत्तीए जीवेसु पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु य तियभंगो, णेरइयदेवमणुएसु छब्धंगा ।
भावार्थ आहार पर्याप्ति से अपर्याप्त जीव एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा आहारक नहीं होते हैं अनाहारक होते हैं, शरीर पर्याप्ति से अपर्याप्त जीव कदाचित् आहारक होता है कदाचित् अनाहारक होता है। आगे की चार अपर्याप्तियों वाले नैरयिकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग होते हैं शेष में समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर तीन भंग होते हैं। भाषा मन पर्याप्ति से अपर्याप्त समुच्चय जीवों और तिर्यंच पंचेन्द्रियों में तीन भंग होते हैं । नैरयिकों देवों और मनुष्यों में छह भंग पाये जाते हैं।
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