Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अट्ठाईसवाँ आहार पद प्रथम उद्देशक आहारार्थी आदि द्वार
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भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! क्या असुरकुमार आहारार्थी आहार के अभिलाषी होते हैं ? उत्तर - हाँ गौतम ! असुरकुमार आहारार्थी होते हैं। जैसे नैरयिकों के विषय में कहा है उसी प्रकार असुरकुमारों के विषय में यावत् 'उनके पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है' तक कहना चाहिये। उनमें से जो आभोग निर्वर्तित आहार है उस आहार की अभिलाषा जघन्य चतुर्थ भक्त से उत्कृष्ट कुछ अधिक एक हजार वर्ष से होती है । बाहुल्य रूप कारण- सामान्य कारण की अपेक्षा वर्ण से हारिद्र - पीला और श्वेत, गंध से सुरभिगंध वाले, रस से अम्ल और मधुर तथा स्पर्श से मृदु, लघु, स्निग्ध और उष्ण पुद्गलों का आहार करते हैं। आहार किये जाने वाले उन पुद्गलों के पुराने वर्ण गंध) रस स्पर्श गुण को नष्ट करके यावत् स्पर्शनेन्द्रिय रूप में यावत् मनोहर रूप में इच्छनीय रूप से अभिलषित रूप से ऊर्ध्व रूप लघुरूप से भार रूप नहीं सुख रूप में परिणत होते हैं दुःख रूप में नहीं इस प्रकार उन पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है। शेष सारा वर्णन नैरयिकों के समान समझना चाहिए । इसी प्रकार स्तनितकुमारों का कथन असुरकुमारों के समान जानना चाहिये, विशेषता यह है कि आभोग निर्वर्तित आहार की इच्छा उत्कृष्ट दिवस - पृथक्त्व से उत्पन्न होती है।
विवेचन - नैरयिक की तरह असुरकुमार देवों में भी दोनों प्रकार की आहार की इच्छा होती है। अनाभोग निर्वर्तित आहार की प्रति समय और आभोग निर्वर्तित आहार की जघन्य चतुर्थ भक्त (एक दिन) से उत्कृष्ट एक हजार वर्ष से कुछ अधिक समय से होती है। नागकुमार आदि शेष नौ निकाय के देवों में अनाभोग निर्वर्तित आहार की इच्छा प्रति समय और आभोग निर्वर्तित आहार की इच्छा जघन्य चतुर्थ भक्त उत्कृष्ट पृथक्त्व दिवस (अनेक दिन) से होती है।
पुढविकाइया णं भंते! आहारट्ठी ?
हंता गोयमा ! आहारट्ठी ।
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पुढविकाइया णं भंते! केवड्कालस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ ? गोयमा! अणुसमयमविरहिए आहारठ्ठे समुप्पज्जइ ।
पुढविकाइयाणं भंते! किमाहारमाहारेंति ?
एवं जहा णेरइयाणं जाव ताई कइदिसिं आहारेंति ?
गोयमा! णिव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं, णवरं ओसण्णकारणं ण भण्णइ । वण्णओ कालणीललोहियहालिद्दसुक्किल्लाई, गंधओ सुब्भिगंधदुब्भिगंधाई, रसओ तित्तरसकडुयरसकसायरसअंबिलमहुराई, फासओ कक्खडफासमउयगरुयलहुयसीयउण्हणिद्धलुक्खाई, तेसिं पोराणे aणगुणे सेसं जहा रइयाणं जाव आहच्च णीससंति ।
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