Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
गोयमा ! सोइंदियत्ताए जाव फासिंदियत्ताए अणिट्ठत्ताए अकंतत्ताए अप्पियत्ताए : असुभत्ताए अमणुण्णत्ताए अमणामत्ताए अणिच्छियत्ताए अ(ण) भिज्झियत्ताए अहत्ताए णो उड्डत्ताए दुक्खत्ताए णो सुहत्ताए तेसिं भुज्जो भुज्जो परिणमति ॥ ६४३ ॥
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कठिन शब्दार्थ - अणिट्ठत्ताए अनिष्ट रूप से, अकंतत्ताए अकान्त रूप से, अप्पियत्ताए - अप्रिय रूप से, असुभत्ताए अशुभ रूप से, अमणुण्णत्ताए अमनोज्ञ रूप से, अमणामत्ताए - अमनाम रूप से, अणिच्छियत्ताए अनीप्सित रूप से, (अनिच्छित रूप से), अ(ण) भिज्झियत्ताए - अनभिलषित रूप से, अहत्ताए अधो-भारी रूप से, उड्डत्ताए - ऊर्ध्व-लघु रूप से, भुज्जो - भुज्जो 'बार-बार ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे उन पुद्गलों को बार-बार किस रूप में परिणत करते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! वे उन पुद्गलों को श्रोत्रेन्द्रिय के रूप में यावत् स्पर्शनेन्द्रिय के रूप में, अनिष्ट रूप से, अकान्त रूप से, अप्रिय रूप से, अशुभ रूप से, अमनोज्ञ रूप से, मनाम रूप से, अनिच्छनीय रूप से अनभिलषित रूप से, अधो-भारी रूप से, ऊर्ध्व-हल्के रूप से नहीं, दुःख रूप से, सुख रूप से नहीं, उनका बार-बार परिणमन करते हैं।
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विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में नैरयिकों के आहार परिणाम का वर्णन किया गया है। नैरयिक जिन पुद्गलों का आहार करते हैं वे श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय रूप में अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ अमनोज्ञ, अतृप्तिकर, अनीप्सित (अनिच्छनीय) अनभिलषित रूप से परिणत होते हैं। ये पुद्गल नैरयिक में गुरु परिणाम से परिणत होते हैं किन्तु लघु परिणाम से परिणत नहीं होते, दुःख रूप से परिणत होते हैं किन्तु सुख रूप से परिणत नहीं होते। आठवां द्वार पूर्ण ।.
असुरकुमारा णं भंते आहारट्ठी ?
हंता गोयमा ! आहारट्ठी । एवं जहा णेरड्याणं तहा असुरकुमाराण वि भाणियव्वं जाव तेसिं भुज्जो भुजो परिणमति । तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से णं जहण्णेणं चउत्थमत्तस्स, उक्कोसेणं साइरेगवाससहस्सस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ । ओसण्णं कारणं पडुच्च वण्णओ हालिद्दसुविकल्लाई, गंधओ सुब्भिगंधाई रसओ, अंबिलमहुराई, फासओ मउयलहुयणिधुण्हाइं, तेसिं पोराणे वण्णगुणे जाव फासिंदियत्ताए जाव मणामत्ताएं इच्छियत्ताए अभिज्झियत्ताए उड्डत्ताए णो अहत्ताए सुहत्ताए णो दुहत्ताए तेसिं भुज्जो भुज्जो परिणमंति, सेसं जहा णेरइयाणं । एवं जाव थणियकुमाराणं णवरं आभोगणिव्वत्तिए उक्कोसेणं दिवसपुहुत्तस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ ॥ ६४४॥
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