Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अट्ठाईसवाँ आहार पद - प्रथम उद्देशक - आहारार्थी आदि द्वार
....... १६९ पुढविकाइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताएं गिण्हंति तेसिं भंते! पोग्गलाणं सेयालंसि कहभागं आहारेंति, कहभागं आसाएंति?
गोयमा! असंखिजइभागं आहारेंति, अणंतभागं आसाएंति।
पुढविकाइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्हंति ते किं सव्वे आहारैति, णो सव्वे आहारैति? जहेव णेरड्या तहेव।
पुढविकाइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्हंति ते णं तेसिं पुग्गला कीसत्ताए भुजो भुजो परिणमंति?
गोयमा! फासिंदियवेमायत्ताए. तेसिं भुजो भुजो परिणमंति। एवं जाव वणस्सइकाइया॥६४५॥
- भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण. करते हैं, उन पुद्गलों में से भविष्यकाल में कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं?
उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक द्वारा आहार के रूप में ग्रहण किये गये पुद्गलों के असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं और अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं।
प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन सभी का आहार करते हैं या उन सभी का आहार नहीं करते?
उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कहा है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिकों के विषय में भी कहना चाहिए।
प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं?
उत्तर - हे गौतम! वे पुद्गल स्पर्शनेन्द्रिय की विषम मात्रा के रूप में बार-बार परिणत होते हैं। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों तक समझ लेना चाहिये।
विवेचन - पृथ्वीकायिकों के द्वारा आहार के रूप में गृहीत पुद्गल स्पर्शनेन्द्रिय की विमात्राविषममात्रा के रूप में परिणत होते हैं। इसका आशय यह है कि नैरयिकों के समान एकान्त अशुभ रूप में और देवों के समान एकान्त शुभ रूप में उनका परिणमन नहीं होता किन्तु कभी शुभ और कभी अशुभ रूप में बार-बार उनका परिणमन होता है। यही पृथ्वीकायिकों की नैरयिकों से विशेषता है। जिस प्रकार पृथ्वीकायिकों के विषय में आहार संबंधी वक्तव्यता कही है उसी प्रकार शेष स्थावरों के विषय में भी समझ लेना चाहिये।
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