Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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१७० 种
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बेइंदिया णं भंते! आहारट्ठी? हंता आहारट्ठी।
बेइंदिया णं भंते! केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पजइ? जहा जेरइयाणं, णवरं तत्थ णं जे. से आभोगणिव्वत्तिए से णं असंखिजसमइए अंतोमुहुत्तिए वेमायाए आहारटे समुप्पजइ, सेसं जहा पुढविकाइयाणं जाव आहच्च णीससंति, णवरं णियमा छहिसिं।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! बेइन्द्रिय जीव क्या आहारार्थी-आहार के अभिलाषी होते हैं? -- उत्तर - हाँ गौतम! बेइन्द्रिय जीव आहारार्थी होते हैं। भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होती है?
उत्तर - हे गौतम! इनका वर्णन नैरयिकों के समान समझना चाहिए। विशेषता यह है कि उनमें जो आभोगनिर्वर्तित आहार है, उसकी अभिलाषा असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त में विमात्रा से उत्पन्न होती है। शेष सारा वर्णन पृथ्वीकायिकों के समान यावत् "कदाचित् निःश्वास लेते हैं" तक कहना चाहिए। विशेषता यह है कि वे नियम से छहों दिशाओं से आहार लेते हैं।
बेइंदियाणं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्हंति ते णं तेसिं पुग्गलाणं सेयालंसि कइभागं आहारेंति कइभागं आसाएंति? एवं जहा णेरइयाणं। .
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! बेइन्द्रिय जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे भविष्य में उन पुद्गलों के कितने भाग का आहार करते हैं और जितने भाग का आस्वादन करते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! इस विषय में नैरयिकों के समान कहना चाहिए।
बेइंदिया णं भंते! जे पोग्गला आहारत्ताए गिण्हंति ते किं सव्वे आहारेंति, णो सव्वे आहारैति?
गोयमा! बेइंदियाणं दुविहे आहारे पण्णत्ते। तंजहा - लोमाहारे य पक्खेवाहारे य, जे पोग्गले लोमाहारत्ताए गेण्हंति ते सव्वे अपरिसेसे आहारेंति, जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गेण्हंति तेसिमसंखिजइभागमाहारेंति, अणेगाइं च णं भागसहस्साई अफासाइजमाणाणं अणासाइजमाणाणं विद्धंसमागच्छंति।
कठिन शब्दार्थ - लोमाहारे - लोमाहार, पक्खेवाहारे - प्रक्षेपाहार, अफासाइजमाणाणंअस्पृश्यमान-बिना स्पर्श किये हुए, अणासाइजमाणाणं- अनास्वाद्यमान-बिना स्वाद लिए हुए, विद्धंसमागच्छंति - विध्वंश को प्राप्त हो जाते हैं।
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