Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अट्ठावीसइमं आहारपयं अट्ठाईसवाँ आहार पद पढमो उद्देसो - प्रथम उद्देशक
प्रज्ञापना सूत्र के सताईसवें पद में नरक आदि गति को प्राप्त जीवों के कर्म के वेदन रूप परिणाम का कथन किया गया। प्रस्तुत अट्ठाईसवें पद में आहार परिणाम का वर्णन करते हैं जिसकी संग्रहणी गाथाएं इस प्रकार हैं -
सच्चित्ताहारट्टी केवइ किं वावि सब्बओ चेव।। कइभागं सव्वे खलु परिणामे चेव बोद्धव्वे॥१॥ एगिंदियसरीराई लोमाहारो तहेव मणभक्खी। एएसिं तु पयाणं विभावणा होइ कायव्वा॥२॥ कठिन शब्दार्थ - आहारट्ठी - आहारार्थी, लोमाहारो - लोम आहार, मणभक्खी - मनोभक्षी।
भावार्थ - १. सचित्ताहार २. आहारार्थी ३. कितने काल से आहार की इच्छा होती है? ४. किन पुद्गलों का आहार करते हैं ? ५. सभी आत्म-प्रदेशों से आहार करते हैं ६. ग्रहण किये हुए पुद्गलों का कितना भाग आहार और आस्वादन करते हैं ? ७. जिन पुद्गलों को आहार रूप में ग्रहण करते हैं क्या उन सब का आहार करते हैं ? ८. आहार का परिणाम अर्थात् आहार किस रूप में परिणत होता है? ९. क्या एकेन्द्रिय शरीर आदि का आहार करते हैं ? १०. लोमाहारी या प्रक्षेपाहारी ११. ओज आहारी या मनोभक्षी आहारी, इन ग्यारह पदों की यहाँ विचारणा व्याख्या करनी है।
विवेचन - प्रस्तुत दो संग्रहणी गाथाओं में ग्यारह द्वारों का प्रतिपादन किया गया है। इन ग्यारह द्वारों के द्वारा प्रथम उद्देशक में आहार संबंधी विचारणा की गयी है।
१. सचित्त आहार द्वार णेरइया णं भंते! किं सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, मीसाहारा?
गोयमा! णो सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, णो मीसाहारा एवं असुरकुमारा जाव वेमाणिया।ओरालियसरीराजाव मणूसा सचित्ताहारा वि अचित्ताहारा वि मीसाहारा वि।
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