Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१६०
प्रज्ञापना सूत्र 林琳琳
प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों को कितने काल से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिकों का आहार दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - १. आभोगनिर्वर्तित-इच्छा पूर्वक किया हुआ और २. अनाभोग निर्वर्तित-इच्छा बिना किया हुआ। उनमें से जो अनाभोगनिवर्तित आहार है उसकी इच्छा प्रतिसमय-निरन्तर होती है और जो आभोग निर्वर्तित आहार है उसकी इच्छा असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त से उत्पन्न होती है।
विवेचन - आहार दो प्रकार का कहा है - १. आभोग निर्वर्तित और २. अनाभोग निर्वर्तित 'मैं आहार करूँ' इस प्रकार की इच्छा पूर्वक ग्रहण किया हुआ आहार आभोगनिवर्तित आहार कहलाता है। इससे विपरीत बिना इच्छा के होने वाला आहार अनाभोग निर्वर्तित आहार कहलाता है। नैरयिकों में आभोग निर्वर्तित आहार की इच्छा असंख्यात समय से होती है- कम से कम अन्तर्मुहूर्त से होती है और अनाभोग निर्वर्तित आहार की इच्छा प्रति समय होती है। नैरयिकों में - 'मैं आहार करूं' इस प्रकार की इच्छा अन्तर्मुहूर्त में होती है अतः नैरयिकों की आहार की इच्छा अन्तर्मुहूर्त की कही गयी है। यह तीसरा द्वार हुआ। __णेरड्या णं भंते! किमाहारमाहारेंति?
गोयमा! दव्वओ अणंतपएसियाई, खेत्तओ असंखिजपएसोगाढाई, कालओ अण्णयरटिइयाई, भावओ वण्णमंताई गंधमंताइ रसमंताई फासमंताई।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक किन पुद्गलों का आहार करते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिक द्रव्य से अनन्त प्रदेशी पुद्गलों का, क्षेत्र से असंख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गलों का, काल से अन्यतर (किसी भी) काल की स्थिति वाले और भाव से वर्ण वाले, गंध वाले, रस वाले और स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि नैरयिक किन पुद्गलों का आहार करते हैं ? नैरयिक द्रव्य से अनंत प्रदेशी पुद्गलों का आहार करते हैं क्योंकि संख्यात प्रदेशी या असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध जीव के द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा वे असंख्यात प्रदेशावगाढ़ स्कन्धों का आहार करते हैं। काल से एक समय, दो समय, तीन समय यावत् दस समय, संख्यात समय और असंख्यात समय की स्थिति वाले स्कन्धों को ग्रहण करते हैं। भाव से वे वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाले द्रव्यों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं क्योंकि प्रत्येक परमाणु में एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श अवश्य पाए जाते हैं।
जाइं भंते! भावओ वण्णमंताई आहारेंति ताइं किं एगवण्णाइं आहारेंति जाव पंचवण्णाइं आहारैति?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org