Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद द्वितीय उद्देशक कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियाँ
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स्वभाव रूप औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होने देता, जिससे सूक्ष्म पदार्थों का स्वरूप विचारने में शंका उत्पन्न हो, सम्यक्त्व में मलिनता आ जाती हो, चल, मल, अगाढ दोष उत्पन्न हो जाते हों, वह सम्यक्त्व वेदनीय है।
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२. मिथ्यात्व वेदनीय - जिसके उदय से जीव को तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की रुचि न हो अर्थात् जो तत्त्वार्थ के अश्रद्धान के रूप में वेदा जाए उसे मिथ्यात्व वेदनीय कहते हैं।
३. सम्यक्त्व - मिथ्यात्व वेदनीय जिस कर्म के उदय से जीव को जिन प्रणीत तत्त्व में रुचि या अरुचि अथवा श्रद्धा या अश्रद्धा न हो कर मिश्र स्थिति रहे, उसे सम्यक्त्व-मिथ्यात्व वेदनीय कहते हैं । चारित्र मोहनीय, चारित्र की घात करता है इसके दो भेद हैं -
१. कषाय वेदनीय - जो कर्म क्रोध, मान, माया और लोभ के रूप में वेदा जाता हो, उसे कषाय वेदनीय कहते हैं।
२. नो कषाय वेदनीय - जिसका उदय कषाय के साथ होता है अथवा जो कषायों को उत्तेजित करने में सहायक हो उसे नो कृषाय कहते हैं। जो स्त्रीवेद आदि नो कषाय के रूप में वेदा जाता है उसे नो कषाय वेदनीय कहते हैं।
कसायवेयणिज्जे णं भंते! कम्मे कइविहे पण्णत्ते ?
गोयमा! सोलसविहे पण्णत्ते । तंजहा - अणंताणुबंधी कोहे, अणंताणुबंधी माणे, अणंताणुबंधी माया, अणंताणुबंधी लोभे, अपच्चक्खाणे कोहे, एवं माणे, माया, लोभे, पच्चक्खाणावरणे कोहे, एवं माणे, माया, लोभे, संजलणे कोहे, एवं माणे, माया, लोभे ।
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भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! कषायवेदनीय कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर - हे गौतम! कषाय वेदनीय कर्म सोलह प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है १. अनन्तानुबन्धी क्रोध २. अनन्तानुबन्धी मान ३. अनन्तानुबन्धी माया ४. अनन्तानुबन्धी लोभ ५-६७-८. अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ ९-१०-११ - १२. प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान, माया तथा लोभ इसी प्रकार १३ - १४-१५-१६. संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं लोभ ।
विवेचन - क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं। अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानवरण और संज्वलन के भेद से प्रत्येक के चार-चार भेद होते हैं इस तरह कषाय वेदनीय के १६ भेद होते हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार हैं
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१. अनंतानुबंधी - जिस कषाय के प्रभाव से जीव अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है उस कषाय को अनन्तानुबंधी कहते हैं। यह कषाय सम्यक्त्व का घात करता है।
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