Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१३८
प्रज्ञापना सूत्र
- प्राणी आयुष्य के सिवाय, सात कर्म प्रकृतियों के बंधक हैं और सूक्ष्म संपराय मोहनीय और आयुष्य के सिवाय छह कर्म प्रकृतियों को बांधने वाले कहे हैं। वे एक कर्म के बंधक नहीं होते क्योंकि एक कर्म के बंधक उपशान्तकषाय आदि होते हैं। इस संबंध में कहा है -
उवसंत खीण मोहा केवलिणो एगविहबंधा। ते पुण दुसमय ट्ठिइयस्स बंधका न उण संपरायस्स॥
- उपशांत मोह क्षीण मोह और केवलज्ञानी (ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान वाले जीव) एक कर्म का बंध करते हैं और वे दो समय की स्थिति वाले साता वेदनीय कर्म के बंधक होते हैं, उनके सांपरायिक (काषायिक) कर्म का बंध नहीं होता क्योंकि उपशान्त कषाय आदि जीव ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते, क्योंकि उनका बन्ध सूक्ष्म संपराय नामक दसवें गुणस्थान के अंतिम समय में ही हो जाता है।
णेरइए णं भंते! णाणावरणिजं कम्मं बंधमाणे कइ कम्पपगडीओ बंधइ? ' गोयमा! सत्तविहबंधए वा अविहबंधए वा। एवं जाव वेमाणिए, णवरं मणुस्से जहा जीवे।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! नैरयिक जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता हुआ कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ?
उत्तर - हे गौतम! नैरयिक जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता हुआ सात या आठ कर्म-प्रकृतियाँ बांधता है। इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त तक कहना चाहिए। किन्तु विशेषता यह है कि मनुष्य सम्बन्धी कथन समुच्चय जीव के समान समझना चाहिए।
विवेचन - नैरयिक जीव ज्ञानावरणीय का बन्ध करता हुआ जब आयुष्य कर्म का बंध नहीं करता तब सात कर्म प्रकृतियों का बंधक होता है और जब आयुष्य कर्म का बंध करता है तब आठों कर्म प्रकृतियों का बंधक होता है। नैरयिक जीव में छह कर्म प्रकृतियों के बंद का भंग संभव नहीं है क्योंकि वह सूक्ष्म संपराय गुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः मनुष्य को छोड़ कर शेष सभी दण्डकों के जीवों को सात या आठ कर्म का बंधक ही समझना चाहिए क्योंकि उन्हें सूक्ष्म संपराय गुणस्थान प्राप्त नहीं होने से छह प्रकृतियों के बंध का विकल्प संभव नहीं है। मनुष्य का कथन सामान्य जीव के समान है। मनुष्य में तीनों विकल्प होते हैं।
जीवा णं भंते! णाणावरणिजं कम्मं बंधमाणा कइ कम्मपमडीओ बंधंति? गोयमा! सव्वे वि ताव होजा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य १, अहवा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org