Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
भावार्थ- नैरयिक आदि यावत् वैमानिक तक के तीन-तीन भंग कहने चाहिए ? प्रश्न- हे भगवन् ! बहुत से मनुष्य वेदनीय कर्म का वेदन करते हुए कितनी कर्म प्रकृतियों का बन्ध करते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! १. सभी मनुष्य सात कर्मों के या एक कर्म के बंधक होते हैं २. अथवा बहुत से मनुष्य सात कर्मों के और एक कर्म के बंधक तथा कोई एक छह कर्मों का, एक आठ कर्म का बन्धक है या अबंधक होता है इस प्रकार कुल मिलाकर सत्ताईस भंग कहना चाहिए। जैसे प्राणातिपात विरत की क्रियाओं के विषय में कहे हैं, उसी प्रकार कहने चाहिये। जिस प्रकार वेदनीय कर्म के वेदन के साथ कर्म बंध का कथन किया है उसी प्रकार आयुष्य, नाम और गोत्र कर्म के विषय में भी कह देना चाहिए।
विवेचन - बहुत मनुष्य वेदनीय कर्म वेदते हुए सात, आठ, छह और एक कर्म बांधते हैं या अबन्धक होते हैं। सात और एक कर्म बांधने वाले शाश्वत हैं और आठ व छह कर्म बांधने वाले तथा अबंधक अशाश्वत हैं। इनके २७ भंग होते हैं असंयोगी एक, दो संयोगी ६, तीन संयोगी १२ और चार संयोगी ८ । ज्ञानावरणीय कर्म के २७ भंग जैसे कहे हैं उसी तरह ये २७ भंग कह देना चाहिए। बेदनीय कर्म की तरह आयु, नाम और गोत्र कर्म भी समझना चाहिए।
मोहणिज्जं वेएमाणे जहा बंधे णाणावरणिज्जं तहा भाणियव्वं ॥ ६३९॥
॥ पण्णवणाए भगवईए छव्वीसइमं कम्मवेयबंधपयं समत्तं ॥
भावार्थ- जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध का कथन किया है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म वेदन के साथ कर्म बन्ध का कथन कह देना चाहिए।
विवेचन - ज्ञानावरणीय के समान मोहनीय कर्म का वेदन करता हुआ जीव सात, आठ या छह कर्मों का बंधक होता है। इसी तरह मनुष्य के विषय में कहना । नैरयिक आदि जीव मोहनीय कर्म वेदता हुआ सात आठ कर्म बांधता है। समुच्चय बहुत जीव मोहनीय कर्म वेदते हुए सात, आठ और छह कर्म बांधते हैं। सात आठ कर्म बांधने वाले शाश्वत हैं और छह कर्म बांधने वाले अशाश्वत हैं। इनके तीन भंग होते हैं। एकेन्द्रिय बहुत जीव मोहनीय कर्म वेदते हुए सात या आठ कर्म बांधते हैं। भंग नहीं होता । एकेन्द्रिय और मनुष्य को छोड़कर शेष जीव मोहनीय कर्म वेदते हुए सात आठ कर्म बांधते हैं । इनके तीन-तीन भंग होते हैं। बहुत मनुष्य मोहनीय कर्म वेदते हुए सात, आठ, छह कर्म बांधते हैं। इनके नौ भंग होते हैं - असंयोगी एक, दो संयोगी चार, तीन संयोगी चार ।
॥ प्रज्ञापना भगवती सूत्र का छव्वीसवां कर्मवेदबंध पद समाप्त ॥
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