Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रज्ञापना सूत्र
पचास सागरोपम के ३ भाग का और उत्कृष्ट परिपूर्ण स्थिति का बंध करते हैं। इस प्रकार जिसके जितने भाग हैं, उतने उनके पचास सागरोपम के साथ कह देने चाहिए।
तेइंदिया णं भंते!० मिच्छत्तवेयणिजस्स कम्मस्स किं बंधति?
गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमपण्णासं पलिओवमस्स असंखिजइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति।
भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! तेइन्द्रिय जीव मिथ्यात्व-वेदनीय कर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं।
उत्तर - हे गौतम! तेइन्द्रिय जीव मिथ्यात्व वेदनीय कर्म का जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पचास सागरोपम का और उत्कृष्ट परिपूर्ण स्थिति का बन्ध करते हैं।
तिरिक्खजोणियाउस्स जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडि सोलसेहि राइदिएहिं राइंदिय तिभागेण य अहियं बंधंति, एवं मणुस्साउयस्स वि। सेसं जहा बेइंदियाणं जाव अंतराइयस्स॥६२८॥
भावार्थ - तेइन्द्रिय जीव तिर्यंचायु का जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट सोलह रात्रि-दिवस तथा एक रात्रि दिवस के तीसरे भाग अधिक करोड़ पूर्व का बन्ध करते हैं। इसी प्रकार मनुष्यायु की स्थिति समझनी चाहिये। शेष सारा वर्णन यावत् अन्तराय कर्म तक की स्थिति बेइन्द्रिय के समान समझनी चाहिए।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में तेइन्द्रिय की स्थिति बंध का कथन किया गया है। कर्मों की जितनी उत्कृष्ट स्थिति है उसे सित्तर कोटाकोटी से भाग देने पर जो स्थिति आती है उसे पचास से गुणा करने पर तेइन्द्रिय की उन उन कर्मों की स्थिति आती है।
चउरिदिया णं भंते! जीवा णाणावरणिजस्स० किं बंधति?
गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमसयस्स तिणि सत्तभागे पलिओवमस्स असंखिज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति, एवं जस्स जइ भागा तस्स सागरोवमसएण सह भाणियव्वा।
भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! चउरिन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म का कितने काल का बंध करते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! चउरिन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म का जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सौ सागरोपम के ३. भाग का और उत्कृष्ट परिपूर्ण स्थिति का बन्ध करते हैं। इसी प्रकार जिन जिन प्रकृतियों की सागरोपम के जितने भाग की स्थिति कही है उससे सौ गुणा तेइन्द्रियों की स्थिति कह देनी चाहिए।
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