Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद द्वितीय उद्देशक कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियाँ
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तिरिक्खजोणियाउयस्स कम्मस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडिं दोहिं मासेहिं अहियं । एवं मणुस्साउयस्स वि ।
सेसं जहा बेइदियाणं, णवरं मिच्छत्तवेयणिज्जस्स जहण्णेणं सागरोवमसयं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति, सेसं जहा बेइंदियाणं जाव अंतराइयस्स ॥ ६२९॥
भावार्थ - तिर्यंचायु कर्म का बन्धकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट दो मास अधिक करोड़ पूर्व का है। इसी प्रकार मनुष्यायु का बन्धकाल भी समझना चाहिए। शेष बेइन्द्रियों के समान कह देना चाहिए । विशेषता यह कि मिथ्यात्व वेदनीय का बन्ध काल जघन्य पल्योपम का असंख्यातवें भाग कम सौ सागरोपम का और उत्कृष्ट परिपूर्ण सौ सागरोपम का है। शेष सारा वर्णन बेइन्द्रियों के समान यावत् अंतराय कर्म तक समझना चाहिये ।
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विवेचन प्रस्तुत सूत्र में चउरिन्द्रिय जीवों के बन्धकाल की प्ररूपणा की गयी है । चउरिन्द्रिय जीवों का बन्धकाल एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा १०० गुणा अधिक होता है ।
असण्णी णं भंते! जीवा पंचिंदिया णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति ? गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स तिणिण सत्तभागे पलिऑवमस्स असंखिज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति, एवं सो चेव गमो जहा बेइंदियाणं वरं सागरोवमसहस्सेण समं भाणियव्वं जस्स जड़ भागत्ति । -
भावार्थ- प्रश्न- हे भगवन्! असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म कितने काल का बांधते हैं ? उत्तर - हे गौतम! असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम हजार सागरोपम के है भाग और उत्कृष्ट परिपूर्ण उतनी ही स्थिति का बन्ध करते हैं। इस प्रकार बेइन्द्रियों के विषय में जो गम (आलापक-पाठ) कहा है, वही यहाँ समझना चाहिए। विशेषता यह है कि जिंस कर्म प्रकृति की सागरोपम के जितने भाग की स्थिति कही है उसे उतने ही भाग हजार गुणा सागरोपम सहित कहना चाहिये ।
. मिच्छत्तवेयणिज्जस्स जहण्णेणं सागरोवमसहस्सं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं ।
णेरड्याउयस्स जहण्णेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागं पुव्वकोडि तिभागमब्भहियं बंधंति । एवं
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