Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - द्वितीय उद्देशक - कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियाँ
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बंधन व संघात - जैसे कोई जीव मरकर मनुष्य गति में आ रहा है, अतः उसके लिए औदारिक के पुद्गलों को (आसपास से) इकट्ठा करना 'संघात' है। फिर इन पुद्गलों को एक दूसरे से जोड़कर सुगठित करना 'बन्धन' है। उदाहरण - जैसे- प्रिंटिंग प्रेस (छापखाना) पर किसी पुस्तक की १००० प्रतियां छप रही है। वहाँ पर प्रारम्भ में छपते हुए-सरीखे-सरीखे पृष्ठों की १००० अलग-अलग गड्डियाँ होगी। अब एक पुस्तक को पूर्ण व्यवस्थित करना है तो अलग-अलग गड्डियों से एक-एक पेज (क्रमानुसार) इकट्ठे करना तो 'संघात' है। व फिर उन पेजों (पृष्ठों) को गोंद आदि के द्वारा जोड़ना, सीवना, चिपकाना (बाईडिंग करना) 'बंधन' है। कर्म ग्रन्थ भाग १ में 'संघात' के लिए घास को इकट्ठे करने वाली दताली के समान तथा 'बंधन' के लिए मिट्टी आदि के बर्तनों को चिपकाने वाले 'लाख' आदि द्रव्य का उदाहरण दिया है।
बन्धन के प्रकार - यहाँ पर (थोकड़े में) पांच बन्धन बताये गये हैं। अर्थात् औदारिक आदि के योग्य पुद्गलों को 'संघात' से इकट्ठा कर आत्म प्रदेशों पर चिपकाना-औदारिक बन्धन है। चूंकि यहाँ औदारिक शरीर तैजस व कार्मण शरीर के साथ भी जुड़ रहा है। अत: अपेक्षा से 'औदारिक तैजस बन्धन, औदारिक कार्मण बन्धन, औदारिक तैजस कार्मण बन्धन आदि भी कहते हैं। इसी प्रकर वैक्रिय व आहारक शरीर के साथ भी तैजस कार्मण का बन्धन गिनने से (९३+१० प्रकृतियाँ बढ़ाने पर) १०३ प्रकृतियां हो जाती है।
वैक्रिय लब्धि का उपयोग - यदि देव नारक उत्तरवैक्रिय करता है तो वैक्रिय तैजस बन्धन, वैक्रिय कार्मण बन्धन, वैक्रिय तैजस कार्मण बन्धन कहेंगे। यदि मनुष्य आदि वैक्रिय लब्धि का प्रयोग करेंगे तो भी वैक्रिय तैजस बन्धन आदि कहेंगे। परन्तु औदारिक वैक्रिय बन्धन आदि नहीं कहेंगे क्योंकि इन दोनों का बन्धन नहीं होता है। (आधार-भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशक ९ सर्व बन्ध का थोकड़ा) इसी प्रकार आहारक-वैक्रिय बन्धन नहीं होता है।।
आगम में तो बन्धन के पांच भेद किये हैं। कर्म ग्रन्थ में बन्धन के पन्द्रह भेद मिलते हैं। इसका मतलब औदारिक योग के समय आहारक बद्ध पुद्गलों का मिलना और आहारक योग के समय औदारिक बद्ध पुद्गलों का मिलना। इसी प्रकार औदारिक और वैक्रिय के लिए भी समझना। जिस समय एक शरीर का सर्वबन्ध या देशबन्ध होता है उस समय अन्य शरीरों के पुद्गलों का बन्ध नहीं होता। पूर्व बद्ध की अपेक्षा से ही कर्मग्रन्थ में बन्धन नाम कर्म के १५ भेद किये गये हैं यथा - १. औदारिक बन्धन नामकर्म २. औदारिक तैजस ३. औदारिक कार्मण ४. वैक्रिय वैक्रिय ५. वैक्रिय तैजस ६. वैक्रिय कार्मण ७. आहारक आहारक ८. आहारक तैजस ९. आहारक कार्मण १०. औदारिक तैजस कार्मण ११. वैक्रिय तैजस कार्मण १२. आहारक तैजस कार्मण १३. तैजस तैजस १४. तैजस कार्मण १५. कार्मण कार्मण बन्धन नाम कर्म।
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