Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - द्वितीय उद्देशक - कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियाँ
१२१
FIFFEEKENNHEIGHEEK
E EPENHANNELEPHE
णेरइयाउयदेवाउयणिरयगइणाम-देवगइणाभवेउव्वियसरीरणाम-आहारगसरीरणाम-णेरइयाणुपुविणामदेवाणुपुविणामतित्थगरणाम-एयाणि णव पयाणि ण बंधंति।
भावार्थ - नरकायु, देवायु, नरकगतिनाम, देवगतिनाम, वैक्रिय शरीरनाम, आहारक शरीर नाम, नरकानुपूर्वी नाम, देवानुपूर्वी नाम, तीर्थंकर नाम, इन नौ प्रकृतियों का एकेन्द्रिय जीव बन्ध नहीं करते हैं।
तिरिक्खजोणियाउयस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी सत्तहिं वाससहस्सेहिं वाससहस्सइभागेण य अहियं बंधंति। एवं मणुस्साउयस्स वि।
तिरियगइणामाए जहा णपुंसगवेयस्स। मणुयगइणामाए जहा सायावेयणिजस्स। एगिदियजाइणामाए पंचिंदियजाइणामाए य जहा णपुंसगवेयस्स।
भावार्थ - एकेन्द्रिय जीव तिर्यंच आयु का जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट सात हजार वर्ष और एक हजार वर्ष के तीसरे भाग अधिक पूर्व कोटी (करोड़ पूर्व) का बन्ध करते हैं। इसी प्रकार मनुष्य आयुष्य की स्थिति भी समझनी चाहिये।
तिच गति नाम कर्म की स्थिति नपुंसकवेद के समान है और मनुष्य गति नाम कर्म की स्थिति सातावेदनीय के समान है। एकेन्द्रिय जाति नाम कर्म और पंचेन्द्रिय जाति नाम कर्म की स्थिति नपुंसक वेद के स्थिति के समान समझनी चाहिये। ___ बेइंदियतेइंदियजाइणामाए पुच्छा? जहण्णेणं सागरोवमस्स णव पणतीसइभागे पलिओवमस्स असंखिजइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति। चउरिदियणामाए वि जहण्णेणं सागरोवमस्स णव पणतीसइभागे पलिओवमस्स असंखिजइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति।
भावार्थ - बेइंद्रिय तेइन्द्रिय जाति नाम कर्म के बंध काल विषयक पृच्छा?
उत्तर - बेइन्द्रिय और तेइन्द्रिय नाम कर्म की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून सागरोपम का भाग और उत्कृष्ट सम्पूर्ण उतनी ही स्थिति बांधते हैं। चउरिन्द्रिय नाम कर्म की भी जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग और उत्कृष्ट सम्पूर्ण उतनी ही स्थिति बांधते हैं।
एवं जत्थ जहण्णगं दो सत्तभागा तिण्णि वा चत्तारि वा सत्तभागा अट्ठावीसइभागा भवंति, तत्थ णं जहण्णेणं ते चेव पलिओवमस्स असंखिजइभागेणं ऊणगा भाणियव्वा,
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