Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
तेईसवा कर्म प्रकृति पद - द्वितीय उद्देशक - कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियाँ
७१
स्त्यानगृद्धि है। जब स्त्यानगृद्धि कर्म का उदय होता है तब वज्रऋषभनाराच संहनन वाले जीव में उत्कृष्ट रूप में वासुदेव का आधा बल आ जाता है। यदि उस समय उस जीव की मृत्यु हो जाय और उसने यदि पहले आयु न बांधी हो तो नरक गति में जाता है।
दर्शन चतुष्क के भेद इस प्रकार हैं
१. चक्षु दर्शनावरणीय - चक्षु अर्थात् आँख से पदार्थों का जो सामान्य ज्ञान होता है उसे चक्षुदर्शन कहते हैं, उसका आवरण करने वाला चक्षु दर्शनावरणीय कहलाता है।
२. अचक्षु दर्शनावरणीय - श्रोत्र, घ्राण, रसना, स्पर्शन और मन के सम्बन्ध से शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श का जो सामान्य ज्ञान होता है तथा वाटे वहते आदि अवस्था में द्रव्येन्द्रियों के अभाव में मात्र आत्मा के द्वारा जो सामान्य ज्ञान होता है, उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं। उसका आवरण करने वाला अचक्षु दर्शनावरणीय कहलाता है।
. ३. अवधि दर्शनावरणीय - इन्द्रियों की सहायता के बिना रूपी द्रव्य का जो सामान्य बोध होता है उसे अवधि दर्शन कहते हैं। उसका आवरण करने वाला अवधि दर्शनावरणीय कहलाता है।
४. केवल दर्शनावरणीय - संसार के सम्पूर्ण पदार्थों का जो सामान्य अवबोध होता है उसे केवलदर्शन कहते हैं, उसका आवरण करने वाला केवल दर्शनावरणीय कहलाता है।
नोट - यहाँ एक ज्ञातव्य है कि निद्रा पंचक प्राप्त दर्शन शक्ति का उपघातक है, जब कि दर्शन चतुष्क मूल से ही दर्शन लब्धि का घातक होता है।
वेयणिजे णं भंते! कम्मे कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - सायावेयणिजे य असायवेयणिजे य। सायावेयणिजे णं भंते! कम्मे पुच्छा? गोयमा! अट्ठविहे पण्णत्ते। तंजहा - मणुण्णा सहा जाव कायसुहया। असायावेयणिजे णं भंते! कम्मे कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! अट्ठविहे पण्णत्ते। तंजहा - अमणुण्णा सहा जाव कायदुहया॥६१२॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! वेदनीय कर्म कितने प्रकार का कहा गया है?
उत्तर - हे गौतम! वेदनीय कर्म दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - सातावेदनीय और असाता वेदनीय।
प्रश्न - हे भगवन्! सातावेदनीय कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ?
उत्तर - हे गौतम ! साता वेदनीय आठ प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - मनोज्ञ शब्द यावत् कायसुखता।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org