Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - प्रथम उद्देशक - पांचवां द्वार .'
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का अथवा उनके उदय से मोहनीय कर्म का वेदन किया जाता है। हे गौतम! यह मोहनीय कर्म का यावत् पांच प्रकार का अनुभाव कहा गया है।
विवेचन - मोहनीय कर्म का विपाक पांच प्रकार का कहा गया है जो इस प्रकार है -
१. सम्यक्त्व वेदनीय - जो मोहनीय कर्म सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति के रूप में वेदन करने योग्य होता है वह सम्यक्त्व वेदनीय है अर्थात् जिसका वेदन होने पर प्रशम आदि परिणाम उत्पन्न होता है वह सम्यक्त्व वेदनीय है।
२. मिथ्यात्व वेदनीय - जो मोहनीय कर्म मिथ्यात्व रूप में वेदन करने योग्य होता है उसे मिथ्यात्व वेदनीय कहते हैं अर्थात् देव आदि में अदेव आदि बुद्धि होना मिथ्यात्व वेदनीय है।
३. सम्यक्त्व-मिथ्यात्व वेदनीय - जिसका वेदन होने पर सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप मिश्र परिणाम उत्पन्न होता है उसे सम्यक्त्व मिथ्यात्व वेदनीय कहते हैं।
४. कषाय वेदनीय - जो क्रोध आदि परिणाम का कारण है वह कषाय वेदनीय है। ५. नोकषाय वेदनीय.- जो हास्य आदि परिणाम का कारण है वह नोकषाय वेदनीय है।
परत: मोहनीय कर्म का उदय इस प्रकार होता है-जिस पुद्गल विषय को वेदता है अथवा जिन पुद्गल विषयों को वेदता है, कर्म पुद्गल विशेष को ग्रहण करने में समर्थ देश आदि के अनुकूल आहार के परिणाम का वेदन करता है क्योंकि आहार के परिणाम विशेष से कदाचित् कर्म पुद्गलों में विशेषता होती है जैसे कि ब्राह्मी औषधि आदि के आहार परिणाम से ज्ञानावरणीय पुद्गलों का विशिष्ट क्षयोपशम होता है। कहा भी है -
"उदयक्खय खओवसमावि य जंच कम्मुणो भणिया।
दव्वं खेतं कालं भावं भवं च संपप्प॥"
अर्थात् - कर्म का उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशम भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के आश्रित कहे हैं। स्वभाव से पुद्गलों का अभ्र विकार आदि परिणाम-आकाश में बादलों आदि के विकार को देखने से विवेक-विरक्तता उत्पन्न होती है। जैसे कि -
आयुःशरजलधरप्रतिमं नराणां संपत्तयः कुसुमित द्रुमसार तुल्याः। स्वप्नोपभोगसदृशा विषयोपभोगाः संकल्पमात्ररमणीयमिदं हि सर्वम्॥
मनुष्यों का आयुष्य शरद् ऋतु के बादलों के समान है, सम्पत्ति पुष्पित-पुष्प वाले वृक्ष के सार के समान है, विषयोपभोग स्वप्न दृष्ट वस्तुओं के उपभोग जैसे है वस्तुतः इस जगत् में जो भी रमणीय प्रतीत होता है वह कल्पना मात्र ही है। प्रशम आदि परिणाम के कारणभूत जो विस्त्रसा पुद्गल परिणाम का अनुभव होता है उसके सामर्थ्य से सम्यक्त्व वेदनीय आदि मोहनीय कर्म वेदा जाता है अर्थात् सम्यक्त्व वेदनीय आदि कर्म का फल प्रशम आदि रूप में वेदा जाता है यह परतः मोहनीय कर्म का
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