Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
३४
प्रज्ञापना सूत्र
उत्तर - हे गौतम! वह सर्वद्रव्यों के विषय में होता है।
एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, णवरं एगिंदियविगलेंदियाणं णो इणढे समढे॥५९४॥
भावार्थ - इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के मिथ्यादर्शन शल्य से विरमण का कथन करना चाहिए। विशेषता यह है कि एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में यह नहीं होता।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अठारह पापस्थानों से विरमण का कथन किया गया है। मनुष्य के अलावा अन्य जीवों में भवनिमित्तक सर्वविरति का अभाव है। मिथ्यादर्शन विरमण सर्वद्रव्यों के विषय में कहा है किन्तु उपलक्षण से सर्व पर्यायों के विषय में भी समझना चाहिये क्योंकि यदि ऐसा नहीं हो तो एक द्रव्य की पर्याय के विषय में जो मिथ्यात्व होता है उसका विरमण असंभव है, कारण कि -
"सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्स भवति नरः।
मिथ्यादृष्टिः सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम्॥" __- सूत्र में कहे हुए एक भी अक्षर के प्रति अरुचि होने से मनुष्य मिथ्यादृष्टि होता है क्योंकि जिनेश्वर भगवन्तों का कहा हुआ सूत्र हमारे लिए प्रमाण है - ऐसा शास्त्र वचन है। मिथ्यादर्शन शल्य का विरमण एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय के अलावा जीवों में होता है यद्यपि बेइन्द्रिय आदि जीवों में करणपर्याप्तावस्था में सास्वादन सम्यक्त्व होती है किन्तु वह मिथ्यात्वाभिमुख और सम्यक्त्व के प्रतिकूल जीवों को होती है अतः उनमें मिथ्यादर्शन शल्य विरमण का निषेध किया गया है। .
पापों से विरत जीवों के कर्म प्रकृति बंध पाणाइवायविरए णं भंते! जीवे कइ कम्मपगडीओ बंधइ?
गोयमा! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एगविहबंधए वा अबंधए वा। एवं मणूसे वि भाणियव्वे।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! प्राणातिपात से विरत एक जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है?
उत्तर - हे गौतम! वह सप्तविध कर्म बन्धक होता है, अथवा अष्टविध कर्म बन्धक होता है, अथवा षट्विधबन्धक, एकविधबन्धक या अबन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्य के द्वारा कर्मप्रकृतियों के बन्ध के विषय में भी कथन करना चाहिए।
पाणाइवायविरया णं भंते! जीवा कइ कम्मपगडीओ बंधंति? गोयमा! सव्वे वि ताव होजा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य १,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org