Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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बाईसवाँ क्रियापद - पापों से विरत जीवों में क्रिया भेद
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गोयमा! सिय कज्जइ, सिय णो कजइ। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! प्राणातिपात विरत जीव के माया प्रत्यया क्रिया होती है ? उत्तर - हे गौतम! कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती। पाणाइवायविरयस्स णं भंते! जीवस्स अपच्चक्खाणवत्तिया किरिया कजइ? गोयमा! णो इणटे समढ़े। भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन्! प्राणातिपात विरत जीव के क्या अप्रत्याख्यान प्रत्यया क्रिया होती है? उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। मिच्छादसणवत्तियाए पुच्छा? गोयमा! णो इणढे समढें। भावार्थ - प्रश्न- हे भगवन्! इसी प्रकार की पृच्छा मिथ्यादर्शन प्रत्यया के सम्बन्ध में करनी चाहिए। उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। . एवं पाणाइवायविरंयस्स मणसस्स वि। भावार्थ - इसी प्रकार प्राणातिपात विरत मनुष्य का भी आलापक कहना चाहिए। एवं जाव मायामोसविरयस्स जीवस्स मणसस्स य। भावार्थ - इसी प्रकार मायामृषा विरत जीव और मनुष्य के सम्बन्ध में भी पूर्ववत् कहना चाहिए।
मिच्छादंसणसल्लविरयस्सणं भंते! जीवस्स किं आरंभिया किरिया कज्जड़ जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कजइ?
गोयमा! मिच्छादसणसल्लविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कज्जइ, सिय णो कजइ, एवं जाव अपच्चक्खाणकिरिया। मिच्छादसणवत्तिया किरिया ण कज्जइ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत जीव के क्या आरम्भिकी क्रिया होती है, यावत् मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया होती है?
उत्तर - हे गौतम! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत जीव के आरम्भिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यान क्रिया तक कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं होती है। किन्तु मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया नहीं होती। . मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते! जेरइयस्स किं आरंभिया किरिया कज्जइ जाव मिच्छादंसणवत्तिया किरिया कजइ?
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