Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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परेण वा उदीरियल्स - अन्य निमित्त से उदय में आये हुए। तदुभएण वा उदीरिज्जमाणस्स - स्वतः और अन्य निमित्त से उभय रूप उदय में आये हुए । गई पप्प - गति को प्राप्त करके । कर्म का विपाक गति की अपेक्षा होता है। जैसे नरक गति को प्राप्त करके असाता वेदनीय तीव्र विपाक वाला होता है । असाता वेदनीय कर्म का उदय नैरयिकों के जितना तीव्र होता है उतना तीव्र तिर्यंच आदि को नहीं होता है।
ठिझं पप्प स्थिति को प्राप्त करके अर्थात् सर्वोत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त करके अशुभ कर्म मिथ्यात्व के समान तीव्र विपाक वाला होता है ।
भवं पप्प भव को प्राप्त करके अर्थात् भव विशेष को प्राप्त करके कोई कर्म अपना विपाक बताने में समर्थ होता है जैसे कि निद्रा मनुष्य भव या तिर्यंच भव को प्राप्त विपाक बताती
है।
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प्रज्ञापना सूत्र
ये सब स्वतः उदय के कारण बताये हैं क्योंकि ज्ञानावरणीय आदि कर्म उस उस गति, स्थिति और भव को प्राप्त करके स्वयं उदय में आता है।
अब कर्म का पर निमित्त की अपेक्षा से उदय बताते हैं
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पोग्गलं पप्पं- पुद्गल को प्राप्त करके अर्थात् काष्ठ, ढेला और तलवार आदि के योग से कर्म का उदय होता है यानी किसी के द्वारा फैंके हुए काष्ठ, ढेला और तलवार आदि पुद्गलों को प्राप्त करके असातावेदनीय और क्रोध आदि का उदय होता है ।
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अर्थात् कोई कर्म पुद्गल परिणाम अजीर्ण परिणाम की अपेक्षा असाता
पोग्गल परिणामं पप्प - पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके की अपेक्षा विपाक को प्राप्त होते हैं जैसे खाये हुए आहार के वेदनीय और मदिरा पान के कारण ज्ञानावरणीय कर्म विपाक को प्राप्त होता है । इन्द्रिय आवरण और इन्द्रिय विज्ञान आवरण का अर्थ और इन में परस्पर साहचर्य -
१. इन्द्रिय आवरण - शब्दादि विषयों को देखने व सुनने आदि में कमी होना ।
२. विज्ञान आवरण स्पष्ट देख सुनकर भी विषय का बराबर ज्ञान (अनुभव) नहीं करना अथवा संदिग्ध अनुभव करना अथवा एक साथ अनेक रूप आदि विषयों को स्पष्ट नहीं समझना विज्ञान का आवरण है।
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ज्ञानावरणीय कर्म का विपाक श्रोत्रावरण आदि दस प्रकार का कहा गया है १. श्रोत्रावरणश्रोत्रेन्द्रिय (कान) विषयक लब्धि (क्षयोपशम) का आवरण होना अर्थात् कान के मिलने पर भी सुनने की शक्ति नष्ट हो जाना या मन्द हो जाना। २. श्रोत्र विज्ञानावरण - श्रोत्रेन्द्रिय के उपयोग का आवरण होना अर्थात् कानों से सुनने पर भी उसका अर्थ नहीं समझना।
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