Book Title: Pragnapana Sutra Part 04
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - प्रथम उद्देशक - पांचवां द्वार
वाला होता है। हे गौतम! यह ज्ञानावरणीयकर्म है। हे गौतम! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके ज्ञानावरणीयकर्म का दस प्रकार का यह अनुभाव कहा गया है।
विवेचन - ज्ञानावरणीय कर्म जीव द्वारा किस प्रकार बांधा हुआ है इसका प्रस्तुत सूत्र में कथन किया गया है।
ज्ञानावरणीय कर्म का विपाक (फल-अनुभाव) दस प्रकार का बताया गया है। परन्तु इसमें अवधि, मनःपर्यव ऐसे भेद निहित किये गये हैं क्योंकि प्रायः करके अधिक जीवों में अवधि आदि तो होती ही नहीं है केवलज्ञान का तो प्रायः अभाव ही रहता है अतः ज्ञानावरणीय के वेदन में जीवों को अवधि आदि की वैसी आकांक्षा (चाहना) कम ही रहती है किन्तु इन्द्रियों के अभाव और इन्द्रियों के विज्ञान में वे ज्ञानावरण का अनुभव करते हैं। इसलिए मुख्य वृत्ति (दृष्टि) से इन्द्रिय और इन्द्रिय विज्ञान को ही विपाक अनुभव का कारण बताया गया है। वैसे ज्ञानावरणीय के भेदों में अवधि, मनःपर्यव ज्ञानावरणीय आदि भेद भी किये ही हैं। अत: गौण वृत्ति से तो अवधि ज्ञानावरण आदि को भी ज्ञानावरणीय के विपाक में बता दिया गया है, ऐसा समझना चाहिए।
जीवेण कडस्स - कर्म बंधन से बंधे हुए जीव द्वारा कृत-किया हुआ। जीव उपयोग स्वभाव वाला है इसलिए वह रागादि परिणति वाला होता है। रागादि परिणाम वाला होकर वह कर्म करता है
और वह रागादि परिणाम कर्म बंधन से बंधे हुए जीव के ही होता है, कर्म बंधन से मुक्त सिद्ध जीव के नहीं। अतः जीव के द्वारा कृत का आशय है कर्म बंधन से बद्ध जीव के द्वारा उपार्जित (किया हुआ)। कहा भी है -
"जीवस्तु कर्म बन्धन-बद्धो, वीरस्य भगवतः कर्ता।
सन्तत्याऽनाद्यं च तदिष्टं कर्मात्मनः कर्तुः॥" __ अर्थात् - कर्म बन्धन से बद्ध जीव ही कर्म का कर्ता है। प्रवाह की अपेक्षा से कर्म बन्धन अनादि है। अनादिकालिक कर्म बन्धन बद्ध जीव ही कर्मों का कर्ता है ऐसा भगवान् महावीर स्वामी को इष्ट है। - जीवेणं णिव्यत्तियस्स - जीव के द्वारा निर्वर्तित-निष्पादित। कर्म बंधन के समय जीव सर्वप्रथम कर्म वर्गणा के सामान्य पुद्गलों को ही ग्रहण करता है उस समय ज्ञानावरणीय आदि भेद नहीं होता। तत्पश्चात अनाभोग वीर्य से उसी कर्म बन्धन के समय ज्ञानावरणीय आदि विशेष रूप से व्यवस्थित करता है जैसे आहार को रसादि रूप में परिणत किया जाता है इसी प्रकार साधारण कर्म वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके ज्ञानावरणीय आदि रूप में परिणत करना 'निर्वर्तन' कहलाता है। .. जीवेण परिणामियस्स - जीव के द्वारा परिणामित अर्थात् प्रद्वेष और निझव आदि रूप कर्म बन्धन के विशेष हेतुओं से उत्तरोत्तर परिणाम को प्राप्त किया हुआ।
सयं वा उदिण्णस्स - स्वयं विपाक को प्राप्त हुए होने से दूसरों की अपेक्षा बिना उदय में आये हुए।
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