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अवश्य ही हुई होगी, इसलिए उन्होंने अम्माजी से बात छेड़ी है।''
"मंचि दण्डनाथजी से बातचीत करने के बाद बाकी बातें...'' हेग्गड़े मारसिंगय्या ने इतना कह इस प्रसंग को वहीं छोड़ दिया और तत्सम्बन्धी कार्य में प्रवृत्त हो गये। सीधे स्वर्य मंचि दण्डनाथ से बातचीत करना उचित न समझकर अन्य किसी ढंग से ब्यौरा जानने की सोचकर चट्टलदेवी को इस काम के लिए नियोजित किया।
चट्टलदेवी ने अपनी चतुराई से जिन विषयों की जानकारी प्राप्त की वह सब विस्तार से होगड़ेजी को कह सुनायी-'बम्मलदेवी की सन्निधान से विवाह करने की आकांक्षा है, परन्तु उसे कार्य रूप में परिणत करने के लिए वे उतावली नहीं हैं। पट्टमहादेवी दुखी हों-ऐसा कोई व्यवहार करना वे नहीं चाहतीं। अपनी आकांक्षा यदि सफल न हो तो कन्या ही बनी रहकर जीवनयापन करने का उनका विचार है। मंचि दण्डनाथजी की सलाह के अनुसार यही उन्होंने निर्णय कर लिया है । सम्भवतः सन्निधान के मन में अम्मलदेवों के बाद तज्ञता के दुबत हो सकता है। परन्तु पट्टमहादेवी को दुःखी बनाने जैसा कोई काम करने की उनकी इच्छा नहीं। इसलिए इस सन्दिग्ध परिस्थिति का निवारण पट्टमहादेवी के ही हाथ में है। आकांक्षाएँ जहाँकी-तहाँ मुरझा जाएँगी-इसकी भी सम्भावना है। सारी बातें अभी सुप्तावस्था में ही हैं। आग्रत होकर आगे बढ़ने की सम्भावना अभी तक तो दृष्टिगोचर नहीं हुई। इसलिए सन्निधान और पट्टमहादेवी-दोनों से मिलकर एकान्त में विचार-विनिमय करें तो अच्छा।" चट्टलदेवी ने अपनी गुप्तचरी में जो पाया सो बता दिया।
यह सारी बात माचिकब्बे को मालूम हुई और उनके द्वारा महामातृश्री को मालूम हुई। इसके पश्चात् यह निर्णय हुआ कि सन्निधान से ही पूछ लेना उचित है। इस निर्णय के अनुसार महामातृश्री ने अपने बेटे से खुलकर बातचीत भी की एकान्त में। माता ने जो कहा सो सब सुनकर बिट्टिदेव बोले, "माँ, आप जानती हैं कि मैंने यह कभी नहीं सोचा था कि सिंहासन पर बैलूंगा। अप्याजी का बेटा नरसिंह जीवित होता तो वह महाराज बनता और मैं राजरक्षक बनकर अपना जीवन व्यतीत करता। तब इस बहुपत्नीत्व का सवाल ही नहीं पैदा होता। मैं अपने अन्तरंग की बात बता देता हूँ. जिसे मैंने अपने जीवन में सबसे पहले चाहा और अपने हृदयपूर्वक जिसे चाहा वह शान्तलदेवी है। मेरे हृदय में उस देवी के लिए जो स्थान है, उसे कोई भी हरण नहीं कर सकता। कभी मेरे मन में ऐसा कोई विचार उठा भी तो वह क्षणिक है और वह अभिलाषा आकर फिसल गयी। यह कहूँ कि ऐसा नहीं हुआ कभी या इस तरह का विचार मन में उठा नहीं है, तो वह आत्मवंचना होगी। हमारे राष्ट्र को अब अनेक शत्रु-शक्तियों का सामना करना है, अपनेपन को बचाना भी है। राजनीतिक प्रज्ञा से युक्त अनुभवी प्रधान जी, मन्त्रिगण, दण्डनाथ-सबने सूचित
24 :: पट्टमहादेवगे शान्तला : भाग तीन