Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[वेदगो सोलसक०-सत्तणोक० उदीर० केलिया ? अणंता । सम्म०-सम्मामि०-इस्थिवे.. परिस० उदीर० केत्तिया ? असंखेजा। प्रादेसे० ऐरइय० सन्चपयडी० उदीर. केत्ति ? असंखेजा। एवं सव्वणेरड्य० सम्वपंचिंदिय०तिरिक्ख-मणुसअपज्जा
देवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । तिरिक्खेसु ओघं । मणुसेसु मिच्छ०-सोलसक०. मार्गदशजणोकीचन्द्वीप्रसागर सम्मशालाम्मामि०-इस्थिवे०-पुरिस० उदीर · केत्तिया ?
संखेन्जा। मणुसपज मणुसिणी०-सव्वट्ठदेवा जानो पयडीओ उदी. तत्थ संखेजा।। एवं जाव।
६१. खेत्तायु० दुविहो णि०-ओघे० आदेसे । ओघेण मिच्छ-सोलसकoसत्तणोक० उदीर० केव० ? सबलोगे। सम्म०-सम्मामि०-इत्थिव-परिस. उदीर० लोग. असंखे० भागे। एवं तिरिक्खाणं । सेसगइमग्गणासु सव्वपदा० लोगस्स असंख०भागे । एवं जाव० ।
६२. पोसणाणु० दुविहो णि.---ोषेण आदेसे० । श्रोधेग मिच्छ००। मिथ्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकपायके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्व, सभ्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुपवेदके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। आदेशसे नारकियों में सब प्रकृतियोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें जानना चाहिए । तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भंग है । मनुष्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकपायोंके उदीरक जीव असंख्यात हैं। सम्यक्त्व, सम्यम्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद
और पुरुषवेदके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । मनुष्य पर्याप्त, मनुडियनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है उनके उदीरक जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
१६५. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। प्रोपसे मिथ्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकपायोंके उदीरक जीशंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोक क्षेत्र है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्वीयेद और पुरुषवेदके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके अमळ्यात भागप्रमाण है। इसीप्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए । शंप गति मार्गणाओं में सत्र पदोंकी अपेक्षा क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकपायोंकी उदीरणा एकेन्द्रियादि जीव भी करते हैं, इसलिए इनका क्षेत्र सब लोक बन जानेसे वह आंघसे तथा सामान्य तिर्यों में सर्व लोकप्रमाण कहा है। परन्तु शेष प्रकृतियोंकी उदीरणा पञ्चेन्द्रिय जीवों में ही सम्भव है और ऐसे जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है, इसलिए सर्वत्र इन प्रकृतियोंके उदीरक जीवांका क्षेत्र उक्त प्रमाण कहा है । सामान्य तियच्चोंको छोड़ कर गति मार्गणाके अन्य जितने भेद हैं उन सबका क्षेत्र लोकके असंख्यातये भागप्रमाण होनेसे उनमें सम्भव सम्र प्रकृतियोंके उदीरकोका क्षेत्र उक्तप्रमाण कहा है।
६६२. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार है - श्रोध और आदेश । प्रोबसे