Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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जय वला सहिदे कसाय पाहुडे
[ वेदगो ७
fa एत्थ उवसंत दंसणमोहणीयस्ले ति सुत्ते ण वृत्तं तो षि पारिसेसियण्णाएण तदुवलंभो दुव्वो ।
* जावे अंतरं विनुं तत्तो पाए एकवीसं पयडीओ पविसंति जाव सम्मत्तमुदीरेंतो सम्मसमुदए देदि, सम्मामिच्छत्तं मिच्छ्रत्तं च श्रवलियबाहिरे fuक्विवदि । ताधे बावीस पगडीओ पावसंति ।
दुक्तविणामारीतरभव समुवलद्धसरूवरस इगिवीसपवेद्वास्स ताव अवद्वाणं होइ जाव उवसंतसम्मत्त कालच रिमसमयो ति । तत्तो परमु समसम्मत्तद्धावखरण सम्मत्तमुदीरेमागेण सम्पत्ते उदय दिए मिच्छत्त- सम्मामिच्छतेमु च आवलियबाहिरे णिक्खिते तक्काले बाचीसपवेसट्टणमुप्पत्ती जायदि चि । ण केवलं सम्मत्तमुदीरे मारणस्स एस कमो, किंतु मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं वा उदीरेमाणस्स वि देणेव कमेण बाबीसपचे सद्वागुध्यत्ती वचच्या, सुत्तस्सेद्स्स देसामासयत्तादो ।
* २७० संपहि तस्सेव विदियसमए अविक्खियदोदसरा मोहपय डिपवेसेण चवीसपत्रसङ्कागुप्यत्ती होदि ति परुवरणमाह
करना चाहिए । यद्यपि यहाँ पर सूत्र में 'उपशान्तदर्शनमोहनीयके' यह वचन नहीं कहा है तो भी परिशेषन्याय से उसका सद्भाव जान लेना चाहिए ।
* जब अन्तर विनष्ट हो जाता है, वहाँ से लेकर इक्कीस प्रकृतियाँ तब तक प्रवे करती हैं जब तक सम्यक्त्वकी उदीरणा करके सम्यक्त्वको उदयमें देता है और सम्यग्मिथ्यात्व तथा मिध्यात्वको उदद्यावलिके बाहर निक्षेप करता है, तब बाईस प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं ।
$ २६८. तात्पर्य यह है कि अन्तरका विनाश होनेके बाद ही समुपलब्धस्वरूप इक्कीस प्रकृतिक प्रवेशस्थानका तब तक अत्रस्थान रहता है जब तक उपशमसम्यक्त्वके कालका अन्तिम समय प्राप्त होता है । श्रागे उपशमसम्यक्त्वके कालका नाश होनेसे सम्यक्त्वकी उदीरणा करते हुए सम्यक्त्वको उदयमें देनेपर तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्वका आवलि के बाहर निक्षेप करने पर उस समय बाईस प्रकृतियोंके प्रवेशस्थानकी उत्पत्ति होती हैं। केवल सम्यक्त्यकी उदीरणा करनेवालेका ही यह क्रम नहीं है किन्तु मिध्यात्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उदीरणा करनेवाले के भी इसी कमसे बाईस प्रकृतियोंके प्रवेशस्थानकी उत्पत्ति कहनी चाहिए, क्योंकि यह सूत्र देशामर्षक है ।
विशेषार्थ - उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अपने कालको समाप्त कर वेदकसम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि इनमें से कोई भी हो सकता है। जब जो होगा तब उस गुणस्थानके अनुरूप मिथ्यात्व श्रादि तीन मेंसे किसी एक प्रकृति की उदीरणा होगी और अन्य दोका उदयावलिके बाहर निक्षेप होगा। यहाँ दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियों में से सम्यक्त्व की अपेक्षा यह कथन किया है।
०२७० अब उसी जीवके दूसरे समय में अविवक्षित दर्शनमोहनीयकी दो प्रकृतियों का प्रवेश होनेसे चौबीस प्रकृतियोंके प्रवेशस्थानकी उत्पत्ति होती है इस बातका कथन करनेके लिए कहते हैं