Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
View full book text
________________
१६६
देगा | पंचिदियतिरिक्खतिय- मणुसतिए मोह० उक० डिदिउदी० जह० अंतीमु०, उक० पुनकोडितं । अणुक० ओघं । पवि०तिरि० अपज ०- मणुमपञ्ज० आणदादि सव्वड्डा चि मोह० उक्त० विदिउदी० ऋणुक० डिदिउदी० सत्थि अंतरं । देवेसु मोह० उक० ड्डि दिउदी० जह० अंतोमु०, उक्क० अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । अणुक० श्रोधं । एवं भवणादि जाब सहस्सार ति । णवरि सगहिदी । एवं जाव० । ६४३९. जहणे पदं । दुविहो णि० -- श्रीवेण आदेसे० । श्रघेण मोह० जह० डि दिउदी ० जह० अंतोमु०, उक० उबडपो० परियङ्कं । अजह० जह० यस०, उक्क० अंतोमु० ।
$ ४४० आदेसेण रइय० मोह० जह० द्विदिउदी० णत्थि अंतरं । ज०
"
गा० ६२ ] मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
उत्तरपडिउदीरणाए ठाणाएं से साज़ियोगहारपरूवणा
कि कुक कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक और मनुष्यत्रिक में मोहनी की उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोदिपृथक्त्वप्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल ओघ के समान हैं । पञ्चेन्द्रिय विर्य अपर्याप्त, मनुष्य अपयी और आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवाम उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा और अनुत्कृष्ट स्थितिदीरका अन्तरकाल नहीं है । देवों मोहनी की उत्कृष्ट स्थितिरका जचन्य अन्तर अन्नमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल प्रोघके समान है । इसोप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्रारकल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनीअपनी स्थिति कहनी चाहिए। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक अन्तरकाल घटित कर जान लेना चाहिए ।
विशेषार्थ — तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि ash देवोंमें उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार मात्र भवके प्रथम समय में प्राप्त होती है, इसलिए इनमें मोहनी की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाके अन्तरकालका निषेध किया है। शेष कथन सुगम 霞 I
१४४६. जघन्य प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है- श्रघ और आदेश | ओघसे मोहनीयकी जघन्य स्थिविउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपाध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ - उपशामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपा पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। यही कारण है कि यहां मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर उपार्थ पुद्गल परिवर्तनप्रभारण कहा है। तथा जो उपशामक जघन्य स्थितिउदीरणा करके दूसरे समय में मरकर देव हो जाता है उसके मोहनी की जघन्य स्थितिउदरीयाका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है और उपशामकके मोeatest अजघन्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए यहाँ मोहनीयकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जधन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्त
हा
है
३ ४४० आदेश से नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं
1