Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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अयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ वेदगो . अप्प० संखे० गुणा । एवं सध्यणरइय-मव्यतिरिक्ख-मणुसअपज०-देवा जाव सहस्सार त्ति | मणुसेसु सबथो० अवत्त द्विदिउदी० । भुज. असंखे गुणा | अववि० असंखे० गुणा । अप्प० संखे०गुणा । एवं मणुसपज०-मणुसिणी० । णवरि संखे०गुणं कायव्यं । आणदादि सचट्ठा ति पत्थि अप्पाबहुअं । एवं जाव० |
४९०. पदणिक्खेवे ति तत्थ इमाणि । तिष्णि अणिोगद्दाराणि-~समुकित्तणा सामित्तं अध्यात्रहुअं चेदि । समुक्कि० दुविहं - जह० उक० | उक्कस्से पयद । । दुविहो णि.-अोघेण आदेसेण य । अोघेण मोह० अस्थि उक्त यड्डि-हाणिअवट्ठा० । एवं चदुगदीसु । गरि आणदादि सचट्ठा ति अस्थि उक्काहाणी । एवं जात्र।
४९१. एवं जहण्णयं पि णेदव्वं ।
४९२. सामित्तं दुविहं-जह० उक्क० । उक्सस्से पथदं । दुविहो णिओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उकबड्डी कस्स ? अण्णद० तप्पाश्रोग्गजहष्णद्विदिमुदीरेमाणो उकस्सद्विदि पबद्धो तस्स प्रावलियादीदस्स तस्स उक्कबड्डी। तस्सेव से काले उक० अवट्ठाणं । उक्क०हाणी कस्म ? अण्णद० उक्कसहिदिमुदीरेमाणो अवस्थितस्थिनिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरस्थिति के उदारक जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार सब नारकी, सब तिर्यन्च, मनुष्य अपर्याप्त, और सामान्य देयोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यों में अवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव .. सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगारस्थितिके उदीरक जीव असंख्यातमुणे हैं। उनसे अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरस्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे है । इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और गनुम्पिनियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें असंख्यातगुणे के स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए । आननकल्पसे लेकर सत्रार्थसिद्धितकके देवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है। इसीप्रकार असाहारक मार्गगणा तक जानना चाहिए।
६४६०. पदनिक्षेपका अधिकार है । उसमें ये तीन श्रनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है.-अन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और श्रादेश | अोधसे मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान है। इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि श्रानतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवा में उत्कृष्ट हानि है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
१४९१. इसीप्रकार जयन्य पदनिक्षेपको भी जानना चाहिए।
४६२. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट का प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है.-प्रोध और आदेश । ओयसे मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है? ? तत्यायोग्य जघन्य स्थितिकी उदीरणा करनेवाला अन्यतर जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है, एक प्रापलिके बाद उसके उत्कृष्ट वृद्धि होता है। उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान हाला है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? उत्कृष्ट स्थितिको उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर