Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ वेदगो ७
ज०डिदिउ दी ० विसेसा० । एवं सणक्कुमारादि जाव णवगेवज्जा ति । णवरि इत्थवेदो गत्थि । अणुद्दिसादि सव्वा त्ति सम्वत्थोवा सम्म० जह० द्विदिउदी० । जहि० उ० श्रसंखे० गुणा | वारसक० सत्तणोक० जह० बिदिउदी० असंखेजगुणा एवं जाव० ।
७०८ भुजगारडिदिउदीरणा त्ति तत्थ इमाणि तेरस आणि ओगद्दाराणि -- समुत्तिणादि जाव अप्पा बहुए ति । समुक्कित्तणाणु० दुविहो णि० प्रोघेण आदेसेण य | ओघेण मिच्छ० सम्म० सोलसक० णवणोक० श्रत्थि भुज० श्रप्प० > अवद्वि०अवत० उदी० | सम्मामि० श्रत्थि अप्प० अवत्त ० विदिउदी ० ।
१७०९. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० सम्म० सोलसक० छण्णोक० अस्थि भुज० - अप्य० - अबट्टि० - अवत०उदी० । धुंस० अस्थि भुज० अप्प० अडि० ड्डिदिउदी० । सम्मामि श्रघं । एवं सत्तसु पुढवीसु । तिरिकखाणमोवं । एवं पंचिदियतिरिक्खतिए । वरि पजतएस इत्थवेदो णत्थि । जोणिणीस पुरिसवेद-ण स० णत्थि । इन्थिवे० अवत्त० खत्थि | पंचिदियतिरिक्ख प्रपत्र - पशुप० मिच्छ० एस० अस्थि भुज० अप्प ० अड्डि ०उदी० | सोलसक० ऋणोक० श्रघं । मणुस
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है। उससे स्त्रीवेदी जवन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। इसीप्रकार सनत्कुमारकल्पसे लेकर नौ मैवेयक देवेंजिका शिवावेदक उदीरणा नहीं है। अनुदिश लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवों में सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा सबसे स्तोक है। उससे यत्स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे बारह कषाय और सात नोकषायकी जघन्य स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए ।
१७०८. भुजगार स्थित्तिउदीरणाका प्रकरण है । उसमें समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुतक ये तेरह अनुयोगद्वार हैं । समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है -- श्रो और आदेश । श्रधसे मिथ्यात्व सम्यक्त्व, सोलह कषाय और नौ नोकपायकी भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव हैं । सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर और अवव्यस्थितिके उदीरक जीव हैं।
४ ७०६. आदेश से नारकियोंमें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कषाय और हद नोकषायकी भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव हैं। नपुंसकवेदकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थिति के उदीरक जीव हैं । सम्यग्मिध्यात्वका भंग के समान है । इसीप्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। सामान्य तिर्यों का भंग श्रधके समान हैं । इसीप्रकार पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकर्म जाननना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पर्यास कोम उदीरणा नहीं है, योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं है तथा स्त्रीवेदक अवक्तव्य स्थिति के उदरक नहीं हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व और नपुंसकबेदकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितस्थितिके उदीरक जीव हैं | सोलह कषाय और छह नोकषायका भंग आंघ के समान है। मनुष्यत्रिक ओके