Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura

View full book text
Previous | Next

Page 346
________________ ↓ उत्तरपय डिडिदिउदीरणाए भुजगारअणि श्रोगहारं गा० ६२ ] श्रवत० जह० उक्क० अंतोनु० । सिंगो ० १७२८. मणुसतिए मिच्छ० अता ०४ - चदुसंजलण-दरपोक० भुज०अवद्वि० जह० एयसमओ, उक्क० पुन्नकोडी देसूणा । अप० श्रवत्त० पंचिंदियविशेन जह० एयस०, अवत्त० अंतोमु०, उक० सव्वेसिं पुव्त्रकोडी देखणा । सम्म० सम्मामि० - तिष्णि वेद० पंचिदियतिरिक्खभंगो | वरि पजत्तर इस्थिवेदो णत्थि । मणुसिणी० पुरिस० स० णत्थि । इत्थवे० भुज० कि० जह० एस० उक्क० पुन्त्रकोडी देखणा | अप्प० जह० एयस०, उक० अंतोमु० । अवत० जह० अंतोमु, उक्क० पुण्वकोडिपुचतं । १७२९. देवेसु मिच्छ० - अनंतापु०४ भुज० - श्रवट्टि० जह० एयस, उक्क० हारस सागरो० सादिरेयाणि । श्रप्प० श्रवत्त० जह० एगसमओ अंतोमु०, उक्क० एकतीसं सागरो देख्नुपाणि । एवं बारसक०-भय-दुर्मुहा० । खवरि अप०-३ - अवत्त० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । एवमरदि- सोग० । णवरि अप्प० अवत्त ० एस० [अंतीम], उक० लम्मासं । एवं हस्य-रदि० | णवरि अध्य० जह० चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी वक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। जह० ३३३ १७२८. मनुष्यत्रिक में मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क और छह नोकषायकी भुजगार और अवस्थित स्थितिउदीरणास जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यों के मान है। आठ कषायकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जवन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व और तीन वेदोंका मंग पश्चेन्द्रिय तिर्यों के समान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में श्रीवेदकी उदीरणा नहीं है और मनुष्यनियों में पुरुषवेद तथा नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं है। तथा इनमें स्त्रीवेदको भुजगार और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जयन्त्र अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिप्रमाण हैं । ६७२६. देवों में मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी भुजगार और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जनन्य अन्तर एक समय है और उत्कृट अन्तर साधिक अठारह सागर है। अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। इसीप्रकार बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार अति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । इसीप्रकार

Loading...

Page Navigation
1 ... 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407