Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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गा• ६२] सत्तरपयडिटिदिउदीरणाए व िद्विविउदीरणाणियोगहारं ३५६ किट्टीवेदगयढमसमए परिप्फुडमेव तदुत्रलंभादो । णवरि एवंविहसंभवो उच्चारणाकारेण ण विवक्खियो । पञ्जत्तएसु इस्थिवेदो णस्थि । मणुसिणीसु पुरिसवेद-णवंस० णस्थि । इथिवेद० अवस० सम्माइडिस्स !
७८६. प्रादेसेण णेरहय० मिच्छ०-सम्मामि० अणंताणु०४ श्रोघं । सम्म० ओ । परि असंखे०गुण हाणि० णस्थि । बारसक०-छण्णोक० ओघं । णवरि चदुसंज० असंखे०गुणवडि-हाणि गस्थि । एवं णवुस । णयरि अवत्त स्थि । एवं सवणेरइय । तिरिक्खेसु पढमपुढविभंगी। वरि तिण्णवे. तिण्णिवडि-हाणि-अद्विः
ओघ । अवत्तकसी अग्ण मिसाइटिस कम्पादियतिरिक्ख तिए । गवरि पज० इस्थिवेदो णस्थि । जोणिणीसु पुरिसवेल-गबुस० णथि । इथिवे. अवत्त० पथि । पंचिंतिरिक्खअपज०-मणुसअपज. अणुद्दिसादि सव्वट्ठा ति सबपयडीणं सवपदा कस्स ? अण्णदरस्स ।
७८७. देवेसु मिच्छ०-सम्मामि०-सम्म०-सोलसक०-अतुणोक० तिरिक्खभंगो। णवरि इस्थिवे०-पुरिसवे० प्रवत्त० णस्थि । एवं भवणादि जाव सोहम्मीसाणा
गुणधृद्धि स्थितिउदीरणा है, क्योंकि उपशम श्रेणिमें सूक्ष्म कृष्टिवेदकके प्रथम समय में स्पष्ट रूपसे बह उपलब्ध होती है। इतनी विशेषता है कि इसप्रकारका सम्भव उच्चारणाकारने विवक्षित नहीं किया । पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा मनुज्यिनियों में पुरुषवेद और नसकवंद नहीं है। इनमें स्त्रीवेदकी श्रवक्तव्य स्थिति उदीरणा सम्यग्दृष्टिके होती है।
७८६. श्रादेशसे नारकियों में मिथ्यात्व, सम्यम्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुरुकका भंग पोषके समान है । सम्यक्त्वका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणहानि स्थितिउदीरणा नहीं है। धारह कषाय और छह नोकषायका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि चार संज्वलनकी असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानि स्थितिउदीरणा नहीं है। इसीप्रकार नपुसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिब्दीरणा नहीं है। इसीप्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। तिर्यञ्चों में प्रथम पृथिवीके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि तीन वेदोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित स्थिति उदीरणाका भंग ओघके समान है। प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणा किसके होती है ? भन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है। योनिनियों में पुरुषवेद और न सकवेद नहीं है। इनमें स्त्रीवेदकी प्रवक्तव्य स्थितिउदारणा नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद किसके होते है ? अन्यतरके होते हैं।
६७८७. देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व,सोलह कषाय और आठ नोकषायका भंग तिर्योंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी प्रवक्तव्य स्थितिउदारणा नहीं है । इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म और ऐशान कल्पतकके देवों में