Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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उत्तरपयडिहि दिउदीरणाए पदणिक्खेवमणिओगारं
सम्म० जह० वड्डी कस्स १ अण्णद० जो सम्माइट्ठी मिच्छतं गंतरा एममुच्वेल्लणकंदयमुब्वेल्लेऊण सम्मतं पडिवण्णो तस्स बिदियसमयवेदयसम्पादट्ठिस्स जह० बढी | जह० हाणी कस्स० १ ऋणद० श्रघट्टिदि गालेमाणगस्स तस्स जह० दाणी | मिच्छ०सम्मामि० सोलसक० - सत्तरोक० जह० हाणी कस्स ? अण्णदरस्स अधविदि गालेमाणगस्स । अणुद्दिसादि सव्वा ति सम्म०-वारसक० सत्तणोक० जह० हाणी कस्स १ ० विदिं गालेमाणयस्स तस्स जह० हारणी । एवं जाव० ।
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७७६. अप्पा वहु दुविहं जह० उक० | उकस्से पयदं । दुविहो शि० - घे आदेय । श्रषेण मिच्छ० सोलसक० णवणोक० सव्वत्थोवा उक० हाणी | चड्डी अडाणं च विसेसाहियं । सम्म० सव्वत्थोवमुक्कस्समवद्वाणं । उक्क० हाणी अखेर उफाळी दिसेनासमाजास्थि अप्पाबहूअं ।
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७७७ आदेसेण सुवणेरयतिरिक्ख-पंचिदियति रिक्वतिय मणुसतिय- देवा भवणादि जाव सहस्सार त्ति जाओ पयडीओ उदीरिजंति वासिमोघं । पंचिंदियतिरिक्खश्रपञ्ज० - मणुस पल० मिच्छ० सोलसक० - सुत्तोक० सव्वत्थोवा उक० चड्डी श्रवद्वाणं च । उक्क० हाणी संखे० गुणा । श्राणदादि बगेवजा त्ति खत्थि अध्याबहुअं । श्रान्तकल्पसे लेकर नौ मैवेयक तक्के देवों में सम्यक्त्वको जघन्य वृद्धि स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जो सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वको प्राप्त होकर एक उद्वेलना काण्डक्की उद्वेलना कर सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ, दूसरे समय में स्थित अन्यतर उस वेदकसम्यम्द्रष्टि जीवके उसकी जन्य वृद्धि स्थितिउदीरणा होती है । जयन्य हानि स्थितिउदीरणा किसके होती है १ अधःस्थितिको गलानेवाले अन्यतर जीवके उसकी जघन्य हानि स्थितिउदीरणा होती है | मिध्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकपायकी जघन्य हानि स्थितिउदीरणा किसके होती है ? अधःस्थितिको गलानेवाले अन्यतर जीवके उनकी जघन्य हानि स्थितिउदीरणा होती है ।
शिसे लेकर सर्वार्थसिद्धितके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायकी जघन्य हानि स्थितिउदीरणा किसके होती हैं ? अधःस्थितिको गलानेवाले अन्यतर जीवके उनकी जघन्य हानि स्थितिउदीरणा होती है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए।
९७७६. अल्पमत्व दो प्रकारका है- जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-- श्रोध और आदेश । श्रघसे मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान विशेष अधिक है । सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि श्रसंख्यातगुणी हैं। उससे उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक है। सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है ।
१७७७ आदेश से सब नारकी, तिर्यख पञ्चेन्द्रिय तिर्यवत्रिक, मनुष्यत्रिक, देव और भवनवासियों से लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जिन प्रकृतियों की उदीरणा होती है उनका भंग ओके समान हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्या अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व सोलह कपाय और सात नोकषायकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान सबसे स्तोक है। उससे उत्कृट हानि संख्यातगुणी है। श्रामतकल्पसे लेकर नौ मैत्रेयकतकके देवोंमें अल्पबहुत्व नहीं