Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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गा.१२] उत्तरपशिहिदिपोरणाए एयजीवेण अंतरं
२५५ उक्क छम्मामा { एवं भय-दुगुंछाणं । णवरि अणुक० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० ।
छह महीना है। इसीप्रकार भय और जुगुप्साके विषयमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीराका जघन्य अन्सरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है।
चिशेपार्थ-मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट स्थिसिके धन्धके योग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम जघन्यसे अन्तर्मुहर्तके अन्तरसे और उत्कृष्टसे अनन्त कालके अन्तरसे होते हैं, क्योंकि संज्ञी पग्नेन्द्रिय पर्याप्तका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल श्रागममें बतलाया है और ऐसे परिणाम उक्त जीवके ही होते हैं। यही कारण है कि यहाँ उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरफाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त कालप्रमाण कहा है। यहाँ अनन्त कालसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कालका ग्रहण हुआ है। इसलिए उसके स्पष्टीकरण के रूप में अनन्त कालको असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। उक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कममाजिक समरस होगसलिए हालज प्रकृतियों की अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय बन जाता है। तथा जो सम्यग्दृष्टि जीव बीचमें अन्तर्मुहूर्व काल तक सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त कर सम्यक्त्वके साथ कुछ कम दो छयासठ सागर काल तक रहकर पुन: मिथ्याष्टि हो जाता है उसके उक्त कालतक उक्त प्रकृतियोंकी उदीरणा नहीं होती, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदारणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो यासठ सागरप्रमाए कहा है। जो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर उसका स्थितिघात किये बिना वेदकसम्यग्दृष्टि बनता है उस वेदकसम्यग्दृष्टिके दूसरे समयमें सम्यक्त्वको उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा होती है तथा आगे अनुत्कृष्ट स्थितिउदारणा होती है। तथा अन्तर्मुहूर्तमें उसीके कदाचित् मिश्रगुणस्थानको प्राप्त होनेपर उसके प्रथम समयमै सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है
और आगे उसीकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है। इसके बाद अन्तर्मुहूर्तमें उसके मिथ्यादृष्टि हो जानेपर तथा उसी प्रकार पुनः अन्तर्मुहूर्त में यही सब क्रिया करनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुस्कृष्ट स्थितिउदीररणाका जघन्य अन्तरकाल अन्समुहर्त प्राप्त होनेसे वह सत्प्रमाण कहा है। इतनी विशेषता है कि ऐसा जीव वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर प्रथम समय और तृतीय श्रादि समयोंमें सम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा करता है और दूसरे समयमें उसकी उत्कृष्ट स्थितिवीपणा करता है, इसलिए इसकी भनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। इनकी उक्त दोनों उदीरणाओंका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। आठ कषायोंकी उदारणा क्रमसे पाँचवें और छठे आदि गुणास्थानों में नहीं होती और पाँचयें तथा छठे आदि गुणास्थानोंका जुदा-जुदा उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्सरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि इनकी उत्कृष्ट स्थिति नदीरणाका जो उत्कृष्ट अन्तरकाल बतलाया है वह इनकी अनुत्कृष्ट स्थिनिउदीरणाका नहीं घटिता होता, क्योंकि मिथ्यात्वमें इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिनुढीरणा उत्कृष्ट स्थितिउद्दोग्णाके कालको छोड़कर यथासम्भव होती रहती है। चार संज्वलनकी उदीरणा उपशमश्रेणिमें उदारणा व्युझिछत्ति के बाद पुनः उस स्थान प्राप्त होनेतक मध्यकालमें नहीं होती। यदि ऐसा जीव एक समयता अनुहीरक होकर दूसरे समयमें भरकर देव हो जाय तो एक समयके