Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura

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Page 251
________________ २३८ जापही अयधवलासहिदे कसायपाहुई [ वेदगो ५३०. प्रादेसे. ऐरइय. मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि. ओघं । सोलसक०भय-दुगुंछ० जह० ट्ठिदिउदी० कस्म ? अएणद० असण्णिपच्छायदहदसमुत्पत्ति यस्स दुसमयाहियावलियउववष्णन्लयस्म तस्म जह० । पंचोका जह० ट्ठिदिउदी० कस्म ? अण्णद० असणिणपच्छायद हदसमुप्पत्तियस्म अंतोमुहत्तादीदस्म तस्म जह० द्विदिउदी० । एवं पढमाए । त्रिदियादि जाच सत्तमा ति द्विदिसंकमभंगो । गरि मिच्छसम्मामि पढमपुढविभंगो । सम्म० जह० डिदिउदी० कस्म ? अण्णद. वेदगसम्मत्तपाओग्गजका दिद्धिसंतरिक्ष अम्मारिणो तस्य पढमसमयवेदयसम्माइडिस्म । अणंताणु०४ जह० डिदिउदी० कस्स ? अण्णद दीहाउढिदिगसु उववजिऊण अंनोमहत्तण सम्म पडिवण्णो अणंताणु० चउक विसंजोए दण थोबायसेसे जीविदम्बए ति मिच्छत्तं गदो जाय सकं मनकम्मस्म हेट्ठा बंधिदरण समद्विदि वा बंधिदण संतकम्म था बोलेद्ण श्रावलियादीदस्स तम्स जह० । ५३१. सव्यतिरिक्खेसु अप्पप्पणो द्विदिसंकमभंगी । णवरि दसणनिय-अणंताणु०४ अोघं । पंचिंदियनिरिक्खतिए अणंनाणु०४ अपनखाणभंगो । गवरि जोणिणासु सम्म• विदियपुढविभंगो। पंचि तिरि अपज मणुसअपज. जाओ ६५३०. आदेशसे नारकियाम मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग श्रोधफे समान है। सोलह कयाय, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थिति उदारणा किसके होनी है ! जिस हतसमुत्पत्तिक जीवको असंज्ञियांमसे आकर दो समय अधिक एक श्रावलि काल गया है उसके जघन्य स्थिति दारणाती है। पांच नोकपायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा किसके होती है? जिस हतसमुत्पत्तिक जीवका प्रसंझियासे श्राकर अन्तमुहत काल अतीन छपा है उसके जघन्य स्थिति उदारण होती है। इसीप्रकार प्रथम पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सानवीं पृथिवीतकके नारकियोंमें स्थितिसंकमके समान भंग है। इननी विशंपता है कि इनमें मिथ्याव और सम्यग्मिाका भंग प्रथम पृथिवीं के समान है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदोरणा किसके होती है ? वेदकसम्यक्त्वके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मवाला जो अन्यतर जीव सम्यक्त्यको प्राप्त हुश्रा उस प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके जघन्य स्थितिउदीरणा होती है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थिति उदीरण। किसके हानी है ? जो अन्यत्तर दीर्घ श्रायुस्थितिबाले जाबोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर अनन्तानुबन्धी चतुष्फी विसयोजना कर जीवितके थोड़ा शेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुश्रा और जवतक शक्य है तबतक सत्कर्मसे नीचे स्थितिका बन्ध कर या समान स्थितिका बन्ध कर या सत्कर्मको बिताकर एक श्रावलि अतीत हुए उस जीवके जघन्य स्थितिउदीरण होती है। ६५२१. सब तिर्यम्चा में अपने-अपने स्थितिसंक्रमक समान भंग है। इतनी विशेषना है कि दर्शनमहिनीयकी नीन श्री अनन्नानुवन्धी वनुष्कका भंग मायके ममान है। पञ्चेन्द्रिय नियञ्चत्रिसमे अनानुन्धीयतुल्क का भंग श्रप्रत्याख्यानक समान है। इननी विशेषता है कि यानिनियाम सम्यक्त्व का भंग दुमरी पृथिवीके समान है। पन्द्रिय निगश्च पर्याम भीर

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