Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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गा०६२] उत्तरपयडिउदीरणाए ठाणसमुकित्तणा पयडिणि सो च १२६ सेसाए माणसंजलणमोकड्डिय पढमहिदि करेदि । तत्थुच्लिट्ठावलियमेत्तकालं दोण्हं पवेसगो होदृण तदो एकिस्से पवेसगो होदि त्ति घेत्तव्यं । एवं सेससंजलणेसु वि वत्तव्यं । लोभे खविदे पुण ण किंचि कम्म पविसदि, विवक्खियमोहणीयकम्मरस तत्तो परमसंभवादो। एवमेकिस्से पवेसट्ठाणस्स चत्तारि भंगा। दोएहं पवेसगस्स पण्णारस भंगाणससणि पि पवाणिजिहासमय भगदमाणाणुगमो कायव्यो ।
एवमोघेण हाणसमुकित्तणा समत्ता २८४. संपहि एत्थे। णिपणयजणणगुमादेसपरूवणमुच्चारणं वत्तहस्सामो। तं जहा-समुक्तित्तणाणु, दुविहो णि-प्रोघे० प्रादेसे० । अोषेण अस्थि २८, २७, २६, २५, २४, २३, २२, २१, २०, १९, १३, १२, १०, ९, ७, ६, ४, ३, २, १ पवेसगो त्ति । एवं मणुसतिए। आदेसेण ऐरइयः अस्थि २८, २७, २६, २५, २४, २२, २१ पवेसः । एवं सब्बणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय-देवा भवणादि जाव णवगेवज्जा त्ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज.-मणुसअपज. अस्थि २८, २७, २६ पवेसगा। अपहिमादि सबढा त्ति अस्थि २८, २४, २२, २१ पवेसगा । एवं जाव । आपलिमात्र शेष रहने पर मानसंज्वलनका अपकर्षण कर प्रथम स्थिति करता है। यहाँ पर उच्छिष्टावलिमात्र काल तक दोनोंका प्रवेशक होकर अनन्तर एकका प्रवेशक होता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार शेष संज्वलनों में भी कहना चाहिए । परन्तु नोभका क्षय होने पर कोई कर्म प्रवेश नहीं करता, क्योंकि विवक्षित मोहकर्म उसके आगे नहीं है। इस प्रकार एक प्रकृति के प्रवेशस्थानके चार भंग हैं। दो प्रकृतियोंके प्रवेशस्थानके पन्द्रह भंग है। शेष प्रवेशस्थानों के भी भंगोंके प्रमाणका अनुगम करना चाहिए।
इस प्रकार ओघसे स्थानसमुत्कीतना समाप्त हुई। . २८४. अब यहीं पर निर्णय उत्पन्न करनेके अभिप्रायसे आदेश प्ररूपणा करने के लिए उच्चारणाको बतलाते हैं। यथा-समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है
ओघ और आदेश। ओघसे २८, २५, २६, २५, २४, २३, २२, २१, २०, १६, १३, १२, १०, ६, ७,६, ४, ३, २ और १ इन प्रकृतिस्थानोंके प्रवेशक जीव हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। प्रादेशसे नारकियोंमें २८, २५, २६, २५, २४, २२ और २१ प्रकृतिस्थानोंके प्रवेशक जीव हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यब्ध, पनवेन्द्रिय तिर्यचत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय सिर्यन अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें २८, २७ और २६ प्रकृतिस्थानोंके प्रवेशक जीव हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें २८, २४, २२ मौर २१ प्रकृतिस्थानोंके प्रवेशक जीव हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गग्णातक जानना चाहिए।
विशेषार्थ—कषायोपशामनासे व्युत होनेपर चूणिसूत्रोंमें जिन प्रवेशस्थानोंका निर्देश किया है अन्य स्थानोंके साथ वे ही यहाँ ओवप्ररूपणामें परिगणित किये गये हैं। कषायोपशामनासे ध्युत हुए जीवकी अपेक्षा जो अन्य प्रकारसे ८, ११, १४, १५, ५६ और १७ प्रकृतिक प्रवेशस्थान जयधवला टीकामें पतलाये हैं उन्हें यहाँ परिगणित नहीं किया है। शेष कथन सुगम है।