Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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गा० ६२ ]
उत्तरपडिउदीरणाए ठाणा से साणियोगदार परूवणा
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आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज
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३३३६. देवेस २८ २७ २६ २५ लोगस्स असंखे० भागो अट्ट - एवचोद्दस० देणा । २४ २२ २१ लोग० असंखे० भागो श्रइचोइस० देखणा । एवं सोहम्मीसाण | एवं चैव सव्वदेवेसु । वरि सगपोसणं पदविसेसो च जाणियन्यो । एवं जाव० । * पाणाजीवेहि कालो अंतरं च अणुचितिक दव्वं । ६ ३३७, एदस्स दव्वट्टियायमा क़ि :विरथररुसत्ताणुग्गमुच्चारणाबलेण कीरदे । तं जहा — कालाजु० दुविहो णि०. श्रोषेण आदेसेण य । श्रघेण २८ २७ २६ २४ २१ सव्वद्धा । २५ जह० सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन है यह स्पष्ट ही है। सम्यग्दृष्टि तिर्यक्षों का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यात भाग और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण बतलाया है । यही कारण है कि यहाँ २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका उक्त क्षेत्रप्रमाण स्पर्शन कहा है। इनमें शेष पोंके प्रवेशकों का स्पर्शन लोकके असंख्यात भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। पश्चन्द्रय तिर्यवत्रिक में अपने सब पदोंकी अपेक्षा यह स्पर्शन बन जाता है । मात्र इनका वर्तमान स्पर्शन लोक असंख्यात भागप्रमाण प्राप्त होनेसे इनमें २६ प्रकृतियों के प्रवेशकका लोकक असंख्यातवें भाग और स्वर्व लोकप्राण स्पर्शन कहा है। पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य पर्यातकों का जो स्पर्शन है वह स्पर्शन उनमें सम्भव पदोंके प्रवेशकोंका बननेमें कोई प्रत्यवाय नहीं है, इसलिए उनमें सम्भव पदोंके प्रवेशकोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वं लोकप्रमाण कहा है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिमें जो स्पर्शन कह । है व घटित कर लेना चाहिए। ३३६. देषों में २८, २७, २६ और २५ प्रकृतियों के प्रवेशकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और समालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। २४, २२ और २१ प्रकृतियोंके प्रवशकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और मनाली के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें जानना चाहिए तथा इसी प्रकार सब देवो में जानना चाहिए, किन्तु सर्वत्र अपना अपना स्पर्शन और पदविशेष जान कर कथन करना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
विशेषार्थ – देवोंमें २८, २७, २६ और २५ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव मारणान्तिक पद और उपपादपदके समय भी सम्भव हैं, इसलिए इनमें सामान्य देवोंका जो स्पर्शन सम्भव है वह बन जाने से वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा शेष पदों के प्रवेशकों में सम्यग्दृष्टियों की मुख्यता है, इसलिए उन पदों के प्रवेशकों का स्पर्शन सम्यग्दृष्टियों की मुख्यता से कहा है। सौधर्म और ऐशानears aaiमें यह स्पर्शन बन जानेसे उसे सामान्य देवोंके समान जानने की सूचना की हैं। शेष देवोंमें पूर्वोक्त विशेषता के साथ अपना अपना स्पर्शन जानकर उसे घटित कर लेना चाहिए । विशेष वक्तव्य न होनेसे वह पृथक् पृथक नहीं बतलाया है ।
* नाना जीवों की अपेक्षा काल और अन्तरका विचारकर घटितकर लेना चाहिए।
३३७. द्रव्यार्थिकनयका आश्रय कर प्रवृत्त हुए इस सूत्रकी पर्यायार्थिक प्ररूपणा बिस्तार रुचि वाले जीवों का अनुग्रह करनेके लिए उच्चारणा के बलसे करते हैं। यथा- कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । श्रघसे २८, २७, २६, २४ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशकों का काल सर्वदा है । २५ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय
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