Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
View full book text
________________
१९. अयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ वेदगा . भुजगार-पदणिकालक-हाणागिविधि सम्मोहल्लस्स मुक्तसारबन्यो ।
एवेसु अणियोगहारसु विहासिदेसु 'को कदमाए द्विदोए पवेसगों त्ति पदं समतं ।
। ४१९. संपहि मंदबुद्धिजणाणुग्गहट्ठमेदेण समप्पिदत्थपरूषणमुच्चारणाइरियोवएमत्रलेण पयासइस्सामो । तं जहा—द्विदिउदीरणा दुविहा—मूलपयडिडिदिउदीरणा उत्तरपडिद्विदिउदीरणा च । मूलपयडिडिदिउदीरणाए ताव पयदं । तस्थ इमाणि तेवीसमणियोगद्दाराणि णादच्याणि भवंति पमाणाणुगो जाय अप्पावहुए ति भुज० परिण• बड्डीहाणाणि च ।
४२०. तत्थ पमाणाण. दुविहं- जह० उक० । उक० पयदं । दुविही णिहमो--ओघेण आदेसेग य | आघण मोह. उक्क द्विदिउदीरणा सच रिमागरोबमकोडाकोडीनो दोहि श्रावलियाहिं ऊणाओ । एवं चदुगदीसु । णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज ०-मणुसअपन० मोह० उक० विदिउदीरणा सत्तरिसागरो०कोडाफोडीयो अंतोमुहुतणाओ। आरणदादि सबट्ठा ति मोह. उक्क० द्विदिउदी अंनोकोडाकोडीओ। एवं जाव० ।
पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान के अनुयोगद्वार होते हैं यह इस सूत्रका भावार्थ है।
* इन अनुयोगद्वारोंका व्याख्यान करने पर कौन किस स्थितिमें प्रवेशक है। यह पद समाप्त हुआ।
४६. अब मन्दबुद्धि जनोंके अनुग्रहके लिए इसके द्वारा समर्पित अर्थका कथन उचारणाचार्यके उपदेशके बलसे प्रकाशित करेंगे। यथा-स्थितिउदीरणा दो प्रकारको है मूलप्रकृति स्थिति उदीरणा और उत्तरप्रकृति स्थिति उदीरणा । सर्व प्रथम मूलप्रकृतिस्थिति उदीरणा प्रकृत है। उसमें ये तेईस अनुयोगद्वार नातव्य है-प्रमाणानुगमसे लेकर अल्पबहुत्व तक तथा भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान ।।
४२०. उसमेंसे प्रमाणानगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है.-ओघ और प्रादेश। अाघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिउदारणा दो श्रावलि कम सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम होती है। इसीप्रकार चारों गतियां में जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यकच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीय की उत्कृष्ट स्थितिउदारमा अन्तर्मुहूतकम सत्तर काडाकाड़ी सागरोपम हाती है। प्रानत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवाम मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिउदारणा 'अन्तःकाडाकोड़ा प्रमाण होती है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
विशेषार्थ.मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने पर धन्धावलिके याद उदयावलिस उपरितन निपकोंकी उदीरणा हनिपर वह मो प्रावलि कम सत्तर काडाकाड़ो सागरापम प्राप्त होती है। शेष कथन सुगम है।