Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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गा० ६२ ] उत्तरपयडिउदारणा, ठाणाणं सेसाणियोगदारपरूवणा १८९ ____ॐ एस्थ विदिउदीरणा दुविहा-मूलपपडिविदिउदीरणा उत्तरपयद्धिद्विपिउदीरणा च ।
। ४१७. एस्थ एदम्मि द्विदिउदीरणापरूवणावसरे मूलपयडिविदिउदीरणा उत्तरपयार्ड हिदिउदीका दिशाविहणायेटिदिउधरणा होइ, तदुभयवदिरेगेण द्विदिउदीरणाए पयारंतरासंभवादो। एवं दुधियापाए हिदिउदीररणाए अणियोगद्दारहि विणा परूवणा ण संभवदि ति तब्धिसागमणियोगद्दाराणमुवण्णासो कीरदे ।
ॐ तत्थ इमाणि अणियोगदाराणि । तं जहा--पमाणापुगमो सामित्तं कालो अंतरं जाणाजोवेहि भंगविचयो कालो अंतरं सपिणयासो अप्पापहुअं भुजयारो पदणिवेवो वड्डी हाणाणि च ।
४८. एत्थ सुगमत्तादो अणुवइद्वारणं सन्न-णोसब-उकस्साणुकस्म-जहण्णाजहणण-सादिअणादि-धुव-अर्द्धवाणियोगहागणमद्धाच्छेदाणंतरणिमारिहाणं भागाभागपरिमाण-खेत्त-पोसणाणं च भंगविचयाणंतरणिदेयजोगाणं भाषाणुगमस्स च संगहो कायव्यो। ण च एदेमिमणियोगदागणं माहासुत्ते णिबंधां णस्थि ति आसंकणिजं, 'सांतर-णिरंतरं बा०' इच्चेदेण गाहापच्छद्ध ण सूचिदत्तादो । तदो मूलपाडविदिउदीरणाए सएिणयासेण विणा तेवीसमणियोगद्दाराणि भुजगार-पदणिक्खेव-वड्-िट्टाणाणि च उत्तरपयडिडिदिउदीरणाए खुण मणियासेण सह चउवीसमणियोगहाराणि संपुष्पाणि
* यहाँ स्थितिउदीरणा दो प्रकारकी हैं-मूलनकृति स्थिति उदीरणा और उत्तरप्रकृति स्थितिउदीरणा ।
१४१७. यहाँ इस स्थितिउारणाके कथन के अवसर पर मूलप्रकृत्ति स्थितिउदीरणा और उत्तरप्रकृति स्थिति उदीरणा ग्रह दो प्रकारकी ही स्थिति उदीरणा है, क्योंकि इन दोनोंसे भिन्न स्थिति उदीरणका प्रकारान्तर असम्भव है। इसप्रकार दो प्रकारकी स्थितिउदीरणाका अनुयोगद्वारोंके बिना कथन सम्मान नहीं है, इसलिए तद्विषयक अनुयोगद्वारोंका उपन्यास करते हैं
* उसमें ये अनुयोगद्वार हैं । यथा-प्रमाणानुगम, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, सम्भिकर्षे, अल्पबहुत्व, भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान |
४१८, यहाँ पर सुगम होनेसे नहीं कहे गये तथा अद्धाच्छेदके अनन्तर निर्देश योग्य ऐसे सर्व, भोसर्व, उत्कृष्ट, अनुस्कृष्ट, जघन्य, श्रजघन्य, सादि, अनादि, ध्रुव, और अध्रुव अनुनयोगद्वारोंता तथा भंगविचयके बाद निर्देश योग्य भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र और स्पर्शन अनयोगद्वारोंका तथा भावानुगमका संग्रह करना चाहिए। इन अनुयोगद्वारोंका गाथासूत्र में संग्रह नहीं है ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि सांतर-णिरंतरं वा' इसप्रकार इस गाधा के उत्तरार्धके द्वारा इनका सूचन हुआ है। इसलिए मूलप्रकृति स्थितिजदीरणाम सन्निकषके बिना तेईम अनुयोगदार नथा भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान ये अनुयोगद्वार होते हैं तथा उत्तरप्रकृति स्थिति उदारणा में तो सन्निवपके साथ पूर चौबीस अनुयोगद्वार तथा भुजगार,