Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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जयवबला सहिदे कसाय पाहुडे
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: ३७२. देवेसु भूज० - अप्प० जह० एस० अंनोमु०, उक्क० एकत्तीस सागरो ० गाणि । त्रडि० जह० एस० उक्क० चत्तारि समया । एवं भणादि जाव णत्रगेवज्जाति । वरि सगडिदी देसूणा । अणुद्दिसादि सम्बट्टा ति भुजः जहण्णु तोमु० | अप० णत्थि अंतरं । अवह्नि० जह० एयस०, उक० ने समया । एवं
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जाव० ।
यहां बावस्थितप्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर चार समय बन जाता है । सब नारकियों में यह अन्तर काल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र प्रत्येक नरककी अलग-अलग भवस्थिति होनेसे उसे ध्यान में रख कर भुजगार और अल्पतरप्रवेशकका उत्कृष्ट अन्दर कहना चाहिए। तिर्यखोंमें कार्यस्थिति अनन्त काल है। इसलिए उनमें भुजगार और अल्पतर प्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर उपाघ्र पुद्गल परिवर्तनप्रमा घटित होने में कोई बाधा नहीं आती। यही कारण है कि इनमें उक्त दोनों पदोंकी अपेक्षा अन्तर कालको ओषके समान जाननेकी सूचना की है। तथा अवस्थित प्रवेशकका अन्तरकाल नारकियोंके समान बन जानेसे उनके समान जानने की सूचना की है। यही बात परचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जाननी चाहिए। मात्र इनकी काय स्थिति पूर्व कोटिमाथ विकासासा उत्कृष्ट अन्तर अपनी कार्यस्थितिमास जानने की सूचना की हैं। पछेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और इनमें भुजगार और अल्पतरप्रवेशकका मनुष्य अपर्याप्तकों में अपनी-अपनी कार्यस्थिनिके भीतर दो चार अल्पतरपद सम्भव नहीं है, इसलिए इनके अन्तरकालका निषेध किया है। किन्तु जिसके इनकी काय स्थिति के भीतर सम्यक्या सभ्यमिध्यात्वकी उद्वेलना होकर एक समय तक अल्पतर पद होता है उसके व स्थित प्रवेशका अन्तरकाल एक समय देखा जाता है, इसलिए इनमें अवस्थित प्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है। मनुष्यत्रिक अन्य सब भंग पकवेन्द्रिय तिर्यखों के समान है यह स्पष्ट दी है। मात्र इनमें उपशमश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव होनेसे श्रवस्थित प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा अवक्तव्य प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण बन जाने से उसे अलग से कहा है ।
६३७२, देषों में भुजगार और अल्पतरप्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अवस्थित प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर यकों तक देवों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देव में भुजगारप्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतरप्रवेशकका अन्तरकाल नहीं है । अवस्थित प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । इसी प्रकार अग दारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
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विशेषार्थ -- देवों में जो २६ प्रकृतियोंके प्रवेशक मिध्यादृष्टि हैं उनको अपेक्षा ही भुजगार और अल्पतरप्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो सकता है, इसलिए यह तत्नमाण का है। मात्र भवनवासी आदि नौ मैवेयक तकके देवोंमें भवस्थिति अलग-अलग है, इसलिए उस उस निकाय देवोंमें अपनी अपनी भवस्थितिको ध्यान में रख कर भुजगार और चल्पतर प्रवेशका उत्कृष्ट अन्तर लाना चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें जो