Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज गा० ६२] उत्तरपयरिउदीरणाए ठाणाणं णाणाजीवेहि भंगश्चियो १४७
३२६. देवेसु. २८ २६ २५ २४ जह० अंतोमु०, २७ २२ २१ जह पलिदो० असंखे०मागो, उक्त • सव्येसिमेक्कत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं भवणादि जाव णवगेयजा त्ति । णवरि सगहिदी देसूणा । अणुद्दिसादि सवडा त्ति २८ २४ २२ २१ पत्थि अंतरं । एवं जाव० |
पाणाजोवेहि भंगविचयो। । ३२७. सुगमभेदमहियारपरामरसवक्कं ।
अट्ठावीस-सत्तावीस-छब्धीस-चदुवीस-एकवीसाए पयडीओ णियमा पविसंति।
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जघन्य अन्तर दो समय दो पर्यायोंकी अपेक्षा घटित होता है जो यहाँ सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ इस प्रवेशस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त करनेका प्रकार यह है कि पहले उपशम सम्यक्त्व पूर्वक अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करा कर २१ प्रकृतियोंका प्रवेशक बनावे। फिर वेदकसम्यक्त्वपूर्वक क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न कराके पुनः २१ प्रकृतियों का प्रवेशक बनावे । अन्तर्मुहूर्त के भीतर यह क्रिया करानेसे इस प्रवेशस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त आ जाता है। सब प्रवेशस्थानाका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त करते समय यह विशेषता ध्यानमें रखनी चाहिए कि भोगभूमिमें उपशमश्रेणिका प्राप्त होना सम्भव नहीं है, इसलिए २० श्रादि जो प्रवेशस्थान उपशमश्रेणिसे सम्बन्ध रखते हैं उनका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है जो अपनी कर्म
भूमिसम्बन्धी काग्रस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें दो बार उपशमणि पर प्रारोहण करानेसे 4 प्राप्त होता है। शेष प्रवेशस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है यह स्पष्ट ही है। २३ प्रकृतियों के प्रवेशकका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट ही है।
६३२६. देवों में २८, २६, २५और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है, २७, २२ और २१ प्रकृत्तियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, तथा सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नी ग्रंवेयक तकके देवों में जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें २८, २४, २२ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशकका अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा जानना चाहिए |
विशेषार्थ. यहाँ सामान्य देवोंमें और नौ प्रैवेयक तकके देवों में सब प्रवेशस्थानोंका यथायोग्य जघन्य अन्तर जिसग्रकार नरकमें घटित करके बतलाया है उसी प्रकार यहां मी घटिप्त कर लेने में कोई बाधा नहीं है। मात्र सामान्य देवोंमें उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त करते समय नौ मवेयकको उत्कृष्ट आयु ही विवक्षित करनी चाहिए, क्योंकि गुणस्थान परिवर्तन वहीं तक सम्भव है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
* नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयका अधिकार है। ६३२७. अधिकारका परामर्श करनेवाला यह वाक्य सुगम है।
* अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इकीस प्रकृतियाँ उदयावलिमें नियमसे प्रवेश करती हैं।