Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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जयधवलासहिदे फसायपाहुडे
[वेदगो परूवणं कस्सामो । तं जहा---उवसामणादो परिवदमागो तिविहं लोभमोकड्डिय तिरह पवेसगो होदूण विदो कालं कादण देवेसुप्पएणो तस्स पढमसमए पुरिसवेद-हस्स-रदीओ धुवा होदृण भय-दुगुंछाहिं सह अट्ठ पयडीअो पविसंति | तहा छप्पवेसगरण कार्ल कादृण देवेसुप्पण्णपढमसमए बट्टमाणएण पुन्यं व पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय
दुगुबासु अक्कमेण पोसिदासु एक्कारमपवेसद्वाणमुप्पञ्जदि । पुणो णच पोसगस्स काल मागमरिक देवेसुपरहिननासप्रतिलिठ्ठिपंचपयडीमु पचिट्ठासु चोइस पसट्टाणं
होइ । नहा तिविहं कोहमोकड्डियूण द्विदवारसपबेसगेण कालं कादण देवेसुप्पण्णपढमसमए भय-दुगुयाहि विणा हस्स-रदि-पुरिसवेदेसु पर्वसिदेसु पण्णारस पवंसट्ठाणं होई । तेणेव बारसपवेसगेण कालं करिय देवेसुप्पण्णपढमसमए हस्स-रदि-पुरिसवेदसु भय-दुगुछाणमएणदरेण सह पवेसिदेसु सोलसपवेसठ्ठाणमुप्पजदि । अथ तेणेक बारसरहमुबरि पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुका ति एदारो पंच पयडीओ जुगचं पवेसिदाओ तो तस्स पढमसमयदेवस्स सत्तारसपवेसट्ठाणं होइ । एवमेदाणि अठेक्कारस-चोद्दस-परणारस सोलस-सत्तारसपर्वमट्टाणाणि देवेसुप्पण्णपढमसमए येव लम्भंति । पदाणि च सुत्तयारेण ण परूविदाणि, सत्थाणसमुक्त्तिणाए चेव सुत्ते विवक्खियत्तादो।
एत्तो खवगायो मग्गियव्या कदि पवेसाणाणि त्ति । यहाँ पर अन्य विकल्प भी सम्भव हैं, अनः उनका कथन करते हैं। यथा-उपशामनासे गिरनेवाला जो जीव तीन प्रकारके लोभका अपकर्षण करके तीनका प्रवेशक होकर स्थित है वह । मरकर देवाम उत्पन्न हुआ, उसके प्रथम समयमें पुरुषवेद, हास्य और रति ध्रुव होकर भय
और जुगुप्साक साथ आठ प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं। तथा छह, प्रकृतियोंके प्रवेशके साथ मरकर देवा में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्ववत् पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका युगपन प्रवेश कराने पर ग्यारह प्रकृतियोंका प्रवेशस्थान उत्पन्न होता है । पुन: नौ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें पूर्वमें कहीं गई पाँच प्रकृतियों का प्रवेश होने पर चौदह प्रकृनियोंका प्रवेशस्थान होता है। तथा तीन प्रकारके क्रोधका अपकर्षण कर बारह प्रकृतियों के प्रवेशक हुए जीवके द्वारा मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेपर भय और जुगुप्साके बिना हास्य, रति और पुरुषवेदका प्रवेश होनेपर पन्द्रह प्रकृतियोंका प्रवेशस्थान होता है। उसी बारह प्रकृतियों के प्रवेशक जीवके द्वारा मरकर देवोंमें उत्पन्न होने के प्रथम समयमें भय और जुगुप्सामसे किसी एकके साथ हास्य, रति और पुरुषवेदके प्रवेश करने पर सोलह प्रकृतियों का प्रवेशस्थान उत्पन्न होता है। और यदि उसी जीवने बारह प्रकृत्तियों के ऊपर पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन पाँच प्रकृतियांका एकसाथ प्रवेश कराया तो उस प्रथम समयवर्ती देवके सत्रह प्रकृतियों का प्रवेशस्थान होता है। इस प्रकार ये आठ, ग्यारह, चौदह, पन्द्रह, सोलह और सत्रह प्रकृतियों के प्रवेशस्थान देवा में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमै ही प्राप्त होते हैं। किन्तु ये सूत्रकारने नहीं कहे हैं, क्योंकि सूत्र में स्वस्थान समुत्कीर्तनाकी ही विवक्षा रही है।
* आगे क्षपकके आश्रयसे कितने प्रवेशस्थान होते हैं इसकी मार्गणा करनी चाहिए।
NARA.
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