Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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०६२] उत्तरपयडिउदीरणाप प्रणियोगद्दारपरूषणा सत्त ७ । एवमेदेसि हाणाणं सम्मामिच्छाइट्ठी मामिश्रो होइ । सासणसम्माइट्टिम्मि वि
वाणि तिरिण उदीरणहाणाणि होति, सम्मामिच्छत्तेण विणा अताणुबंधीणमण्णदरेण सह तदुप्पत्तिदंसणादो। ण च एदम्मि सुत्तम्मि एसो अत्थो ए संगहिरो त्ति प्रासंकणिजपासमासयभाया प्रचितासागर मालारान उक्कसा अविरदसम्मे दु श्रादिस्से छ आदि कादूण जा उक्क स्सेण एव पयडीओ ति ताव एदाणि चत्तारि उदीरणट्ठाणाणि अविरदसम्मे असंजदसम्माइटिम्मि होति ति प्रादिस्से णिदिस्से । तं कधं ? सम्मत्त-अपञ्चक्खाण-पञ्चक्खाण-संजलग-वेद-अएणदरजुगल-भय-दुगुंछा त्ति पत्रमुक्कस्सेण व पपडीओ असंजदसम्माइटिम्मि उदीरिजमाणाो होति । एत्थ भय-दुगुंबाणं अपणदरेण विणा अगु, दोहि मि विणा सत्त, सम्मत्तेण विणा खीणोबसंतदसणमोहणीयम्स जहणणेण छप्पयडीओ होति । तदो एदेसि हाणाणमसंजदसम्माइट्ठी सामियो होदि । एवं पढमगाहाए अत्थपरूवणा समत्ता ।
९९. संपहि विदियगाहाए अत्थो बुच्चदे–'पंचादि अणिहणा०' एवं वुत्ते पंच आदि कारण जावुक्कस्सेण अट्टाणिहणा अपञ्जवसाणा ति एवभेदे चत्तारि उदीरणद्वाणाणि विरदाविरदम्मि संजदासंजदगुणहाणे होति ति मणिदं होइ। तत्थ जहरणेण पंच पयडीयो कदमाओ चि भणिदे उवसमसम्माइट्ठिस्स खयसम्माइडिस्स या संजदासजदस्स पचखाण-संजलण-वेदण्णदरजुगले ति एदारो पंच उदीरणसात ७ प्रकृतियां होती हैं। इस प्रकार इन स्थानोंका सम्यस्मिथ्याष्टि स्वामी होता है । सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें भी ये तीन उदीरणास्थान होते हैं, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके विना अनन्तानुबन्धीचतुष्कोसे किसी एक प्रकृतिके साथ इन स्थानोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। इस सूत्रमें यह अर्थ संगृहीत नहीं है ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि देशामर्षक भावसे यह अर्थ सूचित होता है। 'छादी एउकस्सा अविरदसम्मे दु आदिस्से' बहसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे नौ प्रकृतियों तक ये चार उदीरणास्थान 'अविरदसम्मे' अर्थात् अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें होते हैं ऐसा निर्देश किया है । अब वे किस प्रकार होते हैं यह बतलाते हैं- सम्यक्त्व, अप्रत्याख्यानाबरणचतुष्कमेंसे कोई एक, प्रत्यार पानावरणचतुष्कमेंसे कोई एक, संवलनचतुष्कमेंसे कोई एक, तीन वेदोंमसे कोई एक, अन्यतर युगल तथा भय और जुगुप्सा इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे ये नौ प्रकृतियां असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उदीयमाण होती हैं। यहां पर भय और जुगासामेंसे किसी एकके बिना पाठ, दोनोंके बिना सात तथा उपशान्तदर्शनमोहनीय और क्षीणदर्शनमोहनीय जीवके सम्यक्त्वके बिना जघन्यरूपसे छह प्रकृतियां उदीर्यमाण होती हैं। इसलिए इन स्थानोंका असंयतसम्यग्दृष्टि जीव स्वामी होता है। इस प्रकार प्रथम गाथाकी अर्थप्ररूपणा समाप्त हुई।
६६. अब दूसरी गाथाका अर्थ कहते हैं-'पंचादि अट्ठणिहणा' ऐसा कहने पर पाँचसे लेकर उत्कृष्टरूपसे अाठ पर्यन्त इस प्रकार ये चार उदीरणास्थान विरताविरत अर्थात् संयतासंयत गुणस्थानमें होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उनमेंसे जघन्यरूपसे पाँच प्रकृतियाँ कौनसी है ऐसा कहनेपर उपशमसम्यग्दृष्टि या क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासेयतके प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमेंसे कोई एक, संज्वलनचतुष्कमेंसे कोई एक, तीन वेदोंमेंसे कोई एक और दो युगलोंमें
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