Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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जयधवलासाहिदे कसाय पाहुडे
२५५. ते चउच्चीसपबेस मेण वेदगसम्माहट्टिणा दंसणमोहक्खवणाए अन्युयि मिते खविदे इगिवीस कसाय सम्मत्त सम्मामिच्छाणि ति एदाओ तेवीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंतिः तत्थ पयारंतरासंभवादो |
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[ वेदगो
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* मावीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति सम्मामिच्छते ग्वविदे | ९ २५६. नेव तेवीसपवेसगेण तत्तो तोमुहुत्तं गंतूण सम्मामिन्द्र खत्रिदे सम्मतेण सह एकवीसचरित्त मोह पडीमुदयावलियपवेसस्स सुबत्तमुवलभादो एसो एको पयारो सुत्तयारेण गिट्टिो ति पयारंतरेण वि एदस्स संभवविसयो अणुमरिंगयदो, अतानुबंधिणो विसंजोय इगिवीसपवेसयभावेणावट्टिदस्स उवसमसम्माइट्टिस्स मिच्छत - वेदयसम्मत्त सम्मामिच्छत्त सासणसम्मत्ताणमष्णदर गुणवडिवत्तियढमसमए पयदट्ठासंभव णयमदंसणादो ।
मार्गदर्शक - आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
९ २५४. चौबीस प्रकृतियां प्रवेशक उसी वेदकसम्यग्दृष्टिके द्वारा दर्शनगोहनीय की araj लिए aaa sोकर मिथ्यात्वका क्षय कर देनेपर इक्कीस कषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तेषीस प्रकृतियाँ उदद्यावलिमें प्रवेश करती हैं, क्योंकि वहाँ पर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है ।
* सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय होने पर बाईस प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं।
२५६. तईस प्रकृतियोंकि प्रवेशक उसी जीवके द्वारा वहाँसे अन्तर्मुहूर्त बिताकर सम्यमिथ्यात्वका क्षय करने पर सम्यक्त्वके साथ चारित्रमोहनीयकी इक्कीस कृतियोंका उद्यावलि में प्रवेश सुब्यक्त उपलब्ध होता है । सूत्रकारने यह एक प्रकार निर्दिष्ट किया है, इसलिए प्रकारान्तर से भी २२ प्रकृतियों का विषयभूत स्थान सम्भव हैं यह जान लेना चाहिए, क्योंकि श्रनन्ताबन्धियोंकी विसंयोजना कर इक्कीस प्रकृतियांचे प्रवेशक भावसे अवस्थित उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्याल, वेदकसम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व इनमें से किसी एक गुणस्थान को प्राप्त होनेके प्रथम समय में प्रकृत स्थानके सम्भव होनेका नियम देखा जाता है ।
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विशेषार्थ — जिस उपशभसम्यग्दृष्टिने श्रनन्तानुबन्धचतुष्ककी विसंयोजना की है वह जब मिथ्यात्वप्रकृति की अपकर्षण द्वारा उदीरणा करके मिध्यात्वभावका अनुभव करता है तब उसके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका बन्ध भी होता है और अप्रत्याख्यानावरण आदि रूप द्रव्यको अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमित कर उसका उदद्यावलिके बाहर निक्षेप भी करता है। किन्तु इस समय अनन्तानुबन्धीचतुष्कका उद्यावलिमें प्रवेश नहीं होना, इसलिए ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम समय में बाईस प्रकृतियोंका ही उदद्यावलिमें प्रवेशक होता है, क्योंकि उस समय उसके चारित्रमोहनीयकी इक्कीस और एक मिथ्यात्व ऐसी बाईस प्रकृतियोंका प्रवेश देखा जाता है। यही उपशमसम्यग्दृष्टि जीव यदि वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो उसके प्रथम समय में चारित्रमोहनीयकी इक्कोस और एक सम्यक्त्व इसप्रकार बाईस प्रकृतियोंका उदद्यावलि में प्रवेश देखा जाता है । यही जीव यदि सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होता है तो उसके प्रथम समय में चारित्रमोहनीयकी इक्कीस और एक सम्यग्मिध्यात्व इसप्रकार बाईस प्रकृतियों का उदद्याललिमें प्रवेश देखा जाता है । यही जीव यांद सासादनगुणस्थानको प्राप्त होता है तो उसके प्रथम समय में अनन्तानुबन्धचतुष्ककी किसी एक प्रकृतिके साथ चारित्रमोहनीयकी बाईस प्रकृतियोंका उद्या