Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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माग
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गा० ६२]
उत्तरपडिउदीरणाए टासमुषित्तापयडिदि सो च
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* एकवीस पयडीओ उदयावलिगं पविसंति दंसणमोहणीए खविदे । २५७. पुचावीसवे सयदंसणमोहखवरण सम्मत्ते खविदे हगिवीसचरितमोह पडणं चैव तत्थ पसदंसणादो। एत्थ वि त्रिसंजोइदाताणुत्रं धिचउक्कमुत्रसमसम्माइट्टिमस्सिऊण पथारंतरेण वि पर्यट्टाणसंभवो समत्थणियो ।
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नसागर जी महाराज
२५८. दाणि अतरणिहिडाणि अट्ठावीसादिपवेसट्टाणाणि असंजदपाओग्गाणि संजदपडिबद्धाणि नि वृत्तं होइ । ण एत्थासंजदारणं चेच पाओग्गाणि असंजदपारगाणि तिहारणं कायन्त्रं, सत्तावीसवजाणमेदेसि संजदेसु वि संभोवलं भादो । किंतु एतो उवरिमाणमेयं तसं जदपा ओग्गत्तपदंसणमे देसिम संजदपाओग्गत्तं परूविदं । णच उवसम सेटीए कालं काढूण देवसुप्परसापटमसमए केसिं त्रिविद्वाणाणभुवरिमाणमसंजदपाओग्गत्तसंभवमस्सिदृण पञ्चवद्वाणं कायच्वं, तेसिं सुत्ते वित्रक्खाभावादों, बलि में प्रवेश देखा जाता है, क्योंकि जिस समय ऐसा जीव सासादनसभ्य हुआ है उस समय अनन्तातुबन्त्री चतुष्कमंसे जिस प्रकृतिको उदीरणा हुई हैं उसके सिवा शेष तीन प्रकृतियों का संक्रम होकर उदद्यावलिके बाहर ही निक्षेप होता है। इसप्रकार सूत्रोक्त प्रकारके सिवा अन्य कितने प्रकार बाईस प्रकृतिक प्रवेशस्थान सम्भव है इसका विचार किया ।
* दर्शन मोहमय क्षय होने पर इक्कीस प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं ।
:- आचार्य
६२५७ पत्रक बाईस प्रकृतियों के प्रवेशक दर्शनमोहनीयके क्षपक जीवके द्वारा सम्यक्वका चय कर देने पर चारित्रमोहनीयको इक्कीस प्रकृतियोंका ही वहाँ प्रवेश देखा जाता है। यहाँ पर भी जिसने अनन्तानुबन्धचतुरकको विसंयोजना की है ऐसे उपशमसम्यग्दष्ट्रिका आश्रय लेकर प्रकारान्तरमे भो प्रकृत स्थानकी सम्भावनाका समर्थन करना चाहिए ।
विशेषार्थ सूत्र में जो इक्कीस प्रकृतियों के प्रवेशकका प्रकार बतलाया है वह तो स्पष्ट ही | दूसरा प्रकार यह सम्मत्र है कि जो उपशमसम्यष्टि जीव अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर लेता है उसके दर्शनमोहनीयकी तीन और अनन्तानुबन्धचतुष्क इन सात प्रकृतियोंके सिवाय इक्कीस प्रकृतियोंका उदयावलिमें प्रवेश देखा जाता है। यद्यपि यहाँ प्रकृतियोंके प्रदेशकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि क्षायिकसम्यग्दृष्टिके जिन इक्कीस प्रकृतियोंका उदयानि में प्रवेश होता है, उन्हीं प्रकृतियोंका पूर्वोक्त उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके भी प्रवेश होता है | परन्तु स्वामित्वभेद अवश्य है । मात्र इसलिए इस प्रकारान्तर कहा है ।
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* ये स्थान असंयत प्रायोग्य हैं ।
२५८. जो ये अट्ठाईस प्रकृतिक आदि प्रवेशस्थान पूर्व में कहे हैं ये असंयतप्रायोग्य हैं। वं असंयतों से सम्बन्ध रखते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परन्तु यहाँ पर असंयतप्रायोग्य पदका अर्थ असंतोंके ही योग्य हैं ऐसा अवधारणपरक नहीं करना चाहिए, क्योंकि सत्ताईस प्रकृतिक प्रवेशस्थानको छोड़कर शेष स्थान संयतों में भी सम्भवरूपसे उपलब्ध होते हैं । किन्तु इससे आगे प्रवेशस्थान एकान्तसे संगतों के योग्य ही होते हैं यह दिखलाने के लिए पूर्वोक्त के योग्य कहा है। उपशमश्रेणिमें मरकर देवोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके प्रथम समयमें आगे कितने ही स्थान असंयतोके योग्य सम्भव हैं, अतः इसका आश्रय लेकर व भी