Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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मार्गदर्शक:- आचार्य
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उदी
रायबर
६१
रिएकिस्से पवेसगकालो पवेसगकालो च तदंतरं होण पुणो ओदरमाणेण म्म वेदो प्रकट्टिदो तम्म अंतरसमती होदि । एवं चउरहं पवेसगस्स वि । णवरि दो पवेसगकालो एकिस्से पवेसगकालो अपवेसगकालो च तदंतरं होण पुणो मोदराणा पुष्यकरणपढमसमए भय-दुगुंडाओ अगदी रेमाणस्स पयदंतर परिसमती होदि सव्वं । अधवा स्त्रीयो वसंतदंसण मोहमत्तापमत्ता पुन्त्रकरणाणमण्णदरगुणड्डाणे अप-दुर्गादाहि विणा चत्तारि उदीरेमाणस्स भय- दुगुदाय मण्णदरपवेसेणंतरिदस्स पुणो हृदयवोच्छेदेण लद्धमंतरं कायव्वं ।
* उकस्सेव उवडपोग्गलपरियहं ।
$ ११३. कुदो ? श्रद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए पढमसम्मत्तं घेत्तूण सव्वलहुमुवसमसेडिमारुहिय हेडा दरमाणो अप्यप्पणी द्वाणे आदि कादर्शतरिय देसुद्धपोम्गलपरियमेतकालं परिभमिय धोवावसेसे संसारे पुणो वि सम्मतमुप्पादय खवगसेहिमारोहण पडिलद्धत भावम्मि तदुबलीदो ।
* पंचरहं हं सत्त पहं पयडीणं पवेसगंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ११४. सुगमं ।
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प्रवेश का भी जघन्य अन्तर कहना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि एक प्रकृतिके प्रवेशकका काल और प्रवेशकका काल उसका अन्तर होकर पुनः उतरते हुए जहाँ वेदका अपकर्षण करता है वहाँ जाकर उसके अन्तर की समाप्ति होती है। इसीप्रकार चार प्रकृतियोंके प्रवेशकका भी जघन्य अन्तर कहना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि दो प्रकृतियोंके प्रवेशकका काल एक प्रकृतिके प्रवेशकका काल और प्रवेशकका काल उसका अन्तर होकर पुनः उतरते हुए अपूर्वकरण के प्रथम समय में भय और जुगुप्सा की उदीरणा नहीं करनेवाले जीवके प्रकृत पदके अन्तर की परिसमाप्ति होती है ऐसा यहाँ कहना चाहिए । अथवा जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय या उपशम किया है ऐसे जीवके प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में भय और जुगुप्साके विना चार प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले जीवके भय और जुगुप्सामें से किसी एक प्रकृतिके प्रवेश द्वारा अन्तर कराकर पुनः उन दोनों प्रकृतियोंकी उदयव्युच्छित्तिके द्वारा अन्तरको समाप्तकर उसका अन्तर प्राप्त करना चाहिए।
* उत्कृष्ट अन्तर उपार्धषुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ।
१९१३. क्योंकि अर्धपुलपरिवर्तन काल के प्रथम समय में प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण कर और अतिशीघ्र उपशमश्रेणिपर आरोहणकर नीचे उतरते हुए अपने-अपने स्थानमें उक्त पदोंका प्रारम्भ कर तथा उसके बाद उनका अन्तरकर कुछ कम अर्धपुलपरिवर्तन कालतक परिभ्रमण कर संसारमें रहनेका कुछ काल शेष रहने पर फिर भी सम्यक्त्वको उत्पन्न कर क्षपकश्रेणि पर श्रारोहण करनेसे उस उस पदके प्राप्त होनेपर उक्त पदका अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है ।
* पाँच, छह और सात प्रकृतियोंके प्रवेशकका अन्तरकाल कितना है ? ११४. यह सूत्र सुगम है।