Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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उत्तरपयलिउदीरणाए अणियोगदारपरूवणा १५६. कुदो ? परोप्परविरुद्धसहावत्तादो । चउहं पंचण्हं छण्हं सत्तण्हं अट्ठण्हं मण्डं दसण्हं च अपवेसगो त्ति एदमत्थदो लब्भदे, एक्किस्से पवेसगस्स सेसासेसमासमपदेसयभावस्म देसामासयभावणेदस्स पयत्तादो ।
एवं सेसाणं । ६१५७. सुगमं । उच्चारणाहिप्पाएण पुण सण्णियासो पत्थि, तस्थ सत्तारअहमेवाणियोगद्दाराणं परूवणादों । "६१५८, भावो सव्वत्थ श्रोदइयो भावो । 7 अप्पाषा। ६१५९. एत्तो अप्पाबहुअमहिकयं बहदि भश्चित होना सुविधिसागर जी महाराज
सव्वत्थोवा एबिस्से पवेसगा। ३१६०. कुदो ? सुहमसांपराझ्यद्वाए अणियट्टियद्यासंखेजदिभागे च संचिदवगोवसामगजीवाणमिह म्हणादो ।
दोरहं पवेसगा संखेज्जगुणा । ६१६१. कुदो ? अणियट्टिपढमसमयप्पहुडि तदवाए संखेजेसु भागेसु संचिदखबगोवसामगजीवाणमिहाबलंवणादो ।
* चउराह पयजीणं पवेसगा संखेनगुणा ।
१५.. क्योंकि ये परस्पर विरुद्ध स्वभाववाले हैं। जो एक प्रकृतिका प्रवेशक है वह पार, पाँच, छह, सात, भाट, नौ और इस प्रकृतियोंका अमावेशक है यह पूर्वोक्त कथनसे ही फलित हो जाता है, क्योंकि जो एक प्रकृतिका प्रवेशक है वह शेप समस्त स्थानोंका अप्रवेशक इस प्रकार देशामर्षक साबसे इस अर्थको सूचित करनेमें इस सूत्रकी प्रवृत्ति हुई है।
* इसी प्रकार शेष स्थानोंके विषयमें जानना चाहिए।
5 १५७. यह सूत्र सुगम है। किन्तु उच्चारणाके अभिप्रायसे सन्निकर्ष अधिकार नहीं है, क्योंकि उसमें सत्रह अनुयोगद्वारोंकी ही प्ररूपणा की है।
$ १५८. भाव सर्वत्र औदयिक है। * अल्पबहुत्व। ६ १५६. आगे अल्पवहुत्व अधिकृतरूपसे जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * एक प्रकृति के प्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं ।
६१६०. क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायके काल में और अनिवृत्तिकरणके संख्यातवें भागप्रमाण कालमें सञ्चित हुपक्षपक और उपशामक जीवोंका यहाँ पर ग्रहण किया है ।
* उनसे दो प्रकृतियों के प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं।
१६१. क्योंकि अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयसे लेकर उसके फालके संख्यात बहुभाग प्रमाण कालमें सम्चित हुए क्षपक और उपशामक जीवोंका यहां पर ग्रहण किया है।
* उनसे चार प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं।